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अंधी राजकुमारी देखे लगी 'क्यों? यह नाम ही पसंद क्यों किया आपने?' 'क्योंकि तेरे मन में सभी जीवों को अभयदान देने की इच्छा पैदा हुई है ना? यह इच्छा उस आनेवाले जीव के व्यक्तित्व का इशारा है... सूचक है!'
'बिल्कुल सही बात है आपकी। अपने पुत्र का नाम हम अभयकुमार ही रखेंगे।'
इस तरह हँसते-हँसाते... खिलखिलाते दिन गुजरते हैं। रातें ढलती हैं श्रेणिक और सुनन्दा की।
इधर वह व्यापारी देवनंदि सार्थवाह अपने काफिले के साथ घूमता हुआ राजगृही नगरी पहुँचा। देवनंदि ने बेशुमार धन-दौलत कमायी थी। वह राजा को नजराना देने के लिए राजसभा में गया। राजा की कुशल पृच्छा की और कीमती रत्न व जवाहरात राजा के चरणों में भेंट किया। देवनंदि ने जान लिया कि राजा के निन्यानवे बेटे आपस में लड़ाई-झगड़ा कर रहे हैं। राजा खुद चिंतातुर हैं... संतप्त हैं। वह उस समय तो मौन रहा। अपने स्थान पर लौट गया।
श्रेणिक के चले जाने के बाद राजा प्रसेनजित के मन में शांति नहीं थी। रानी कलावती के सामने राजा ने कई बार अपने दिल की दुःखती रग को खुला किया था :
'मैंने बार-बार श्रेणिक का अपमान किया इसलिए वह मेरा लाड़ला मुझे छोड़कर चला गया। वह न जाने कहाँ होगा? क्या कर रहा होगा? उसके बिना न तो मुझे खाना भाता है, न ही जी कहीं लगता है। रातों की नींद भी हराम हो गई है! बार-बार उसकी याद आती है... उसके गुण याद आते हैं और जी भर आता है... वह क्या गया... मेरा तो सब कुछ मुझ से रुठकर चला गया! क्या वह जिन्दा भी होगा या नहीं? उसके जाने के बाद उसके बारे में कोई समाचार मुझे नहीं मिले हैं! क्या उस राजकुमार को किसी के वहाँ नौकरी करनी पड़ती होगी? क्या उसे घर-घर पर भटकना पड़ता होगा?' बोलते-बोलते राजा प्रसेनजित रो देते। रानी कलावती उन्हें आश्वस्त करती ': 'महाराजा, आप नाहक दुःखी मत होइये। अपना श्रेणिक तो बुद्धिशाली है... पुण्यशाली है... वह जहाँ भी होगा वहाँ सुखी होगा... और एक न एक दिन उसके समाचार हमें प्राप्त होंगे ही... आप निश्चिंत रहिए। मन को कड़ा कीजिए। यों रो-रोकर बिलखने से क्या?'
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