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अभयकुमार का अपहरण
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९. अभयकुमार का अपहरण
'पिताजी, मुझे दीक्षा लेने की अनुमति दीजिए... श्रमण भगवान महावीर स्वामी का उपदेश सुनकर मुझे इस संसार के प्रति वैराग्य हो गया है।' ___ 'बेटा, दीक्षा लेना अच्छी बात है! सचमुच तो दीक्षा अब मुझे लेनी चाहिए... तुझे तो अभी बरसों तक राज्य करना है... राज्य को सम्हालना है! राज्य की समस्याओं को तेरी चमत्कारिक बुद्धि से सुलझाना है... प्रजा को सुख-समृद्धि से भर देना है! पूरे भारतवर्ष में मगध साम्राज्य को अद्वितीय, अविजित और अनूठा बनाकर दिखाना है! और फिर, यह सब तेरे द्वारा ही हो सकता है... ऐसा मेरा दृढ़ विश्वास है!
कुमार... मैं मानता हूँ... संसार में अब मेरा रहना जरूरी भी नहीं... फिर भी मुझे दीक्षा लेकर संसार त्याग करने का विचार नहीं आता... जबकि दीक्षा को मैं अच्छी मानता हूँ।'
'पिताजी, श्रमण भगवान महावीर स्वामी जैसे सर्वज्ञ वीतराग परमगुरु के मिलने के पश्चात् भी, और आप जैसे पिता मिलने पर भी यदि मैं संसार त्यागी बनकर दीक्षा न लूँ तो मुझ सा अभागा और कौन होगा? इसलिए, आप मुझ पर कृपा करें... और मुझे दीक्षा के लिए इजाजत दें!'
राजा श्रेणिक सोच में डूब गये। उन्होंने अभयकुमार के सामने देखा... कुछ सोचा और कहा :
'कुमार, जब मैं गुस्से में आगबबूला होकर तुझे कह दूँ... कि 'चला जा यहाँ से, मुझे तेरा मुँह भी मत दिखाना!' बस तब तू दीक्षा ले लेना। इससे पहले दीक्षा लेने की बात मत करना।' __ अभयकुमार ने राजा का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। वह अपने आवास पर गया। उसने सोचा :
जैसे वज्र को बींधने के लिए... वज्र ही काम आता है... वैसे मुझे मेरी बुद्धि से राजा की बुद्धि को काटना होगा यानी कि बुद्धि-बल से ही पिताजी को पराजित करना होगा... तब ही मैं दीक्षा ग्रहण करके साधु बन सकूँगा और धर्म का महान पुरुषार्थ कर सकूँगा।
अभयकुमार ने बरसों तक श्रेणिकराजा के महामंत्री पद को अलंकृत
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