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मिलना पिता से पुत्र का!
८. मिलना पिता से पुत्र का!
अभय अपनी माँ सुनंदा के साथ राजगृही के बाहरी उद्यान में आकर ठहरा। रथ को उन्होंने वापस बेनातट भेज दिया।
अभयकुमार ने सुनंदा से कहा : ___ 'माँ, तू इस बगीचे में शांति से विश्राम कर... मैं नगर में जाकर एक चक्कर लगा आता हूँ।' __ सुनंदा ने कहा : 'बेटा, यह राजगृही तो बहुत बड़ा नगर है... तू अनजान है... छोटा है... इसलिए सम्हलना... और समय पर वापस लौट आना... वरना... मेरे मन में चिंता बनी रहेगी... मेरा जी उचटता रहेगा।' 'माँ, तू जरा भी फिक्र मत कर! तेरे बेटे को कोई तकलीफ होनेवाली नहीं!'
माँ-बेटे ने साथ बैठकर नाश्ता किया। बगीचे के कुएँ में से पानी निकाल कर पी लिया। और अभयकुमार माँ की आशीष लेकर नगर की ओर रवाना हुआ।
नगर के दरवाजे में प्रवेश करते ही उसे बढ़िया शुकुन हुए... पर अभयकुमार को शुकनशास्त्र का इतना ज्ञान नहीं था! वह तो चलता ही रहा। इधर-उधर नजर दौड़ाता हुआ। वह नगर के मध्यभाग में पहुँचा । जहाँ चार रास्ते मिलते थे... वहाँ चौराहे के पास उसने लोगों का एक टोला देखा।
अभय ने वहाँ जाकर एक अच्छे से दिखनेवाले आदमी से पूछा : 'क्या बात है? ये इतने सारे लोग यहाँ पर इकट्ठे क्यों हुए हैं?' ___ उस आदमी ने कहा : 'अरे लड़के... तू परदेशी लगता है! यहाँ एक कुआँ है! खाली कुआँ है... उसमें यहाँ के हमारे महाराजा श्रेणिक ने एक अंगूठी डाली हुई है। उन्होंने नगर में घोषणा की है कि कोई भी आदमी यदि कुएँ के किनारे पर खड़ा होकर कुएँ में पड़ी हुई अंगूठी निकालकर पहनेगा, उसे महाराजा अपना आधा राज्य देंगे और उस आदमी को महामंत्री बनायेंगे।'
अभयकुमार उस कुएँ के पास गया। उसने कुएँ में पड़ी हुई हीरे की अंगूठी को देखा। फिर उसने लोगों की ओर देखा | मन ही मन कुछ सोचा... निर्णय किया और खड़े हुए लोगों की ओर मुड़कर कहा :
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