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पिता की चिट्ठी आई! तेरे पर ही सब से ज्यादा प्रेम है, श्रद्धा है... ज्यादा क्या लिखू? तू सोच समझकर ही कोई कदम उठाना ।
और फिर पंख बगैर ज्यों मोर अच्छा नहीं लगता है... वैसे ही तेरे बगैर मेरी शोभा फीकी हो गई है। तेरे बिना राजगृह सूना-सूना हो गया है!'
___ - तेरा दुःखी पिता पिता का पत्र पढ़कर श्रेणिक आश्वस्त हुआ। उसे लगा कि 'पिताजी का मेरे ऊपर प्यार कायम है... वैसा ही है!' फिर भी उसका मन राजगृह जाने के लिए तत्पर नहीं हो रहा था, उसके मन में धारणा थी सुनंदा पुत्र को जन्म दे... उसके बाद ही राजगृही जाना।
उसने पिता को पत्र लिखा। 'मेरे पूज्य पिताजी!
आपका पत्र मिला। पढ़कर मन का समाधान हुआ है। परंतु ज्यों एक पंख कम होने से मोर की शोभा में कुछ फर्क नहीं आता... वैसे ही मेरे निन्यानवे भाई वहाँ पर हैं... एक मैं नहीं भी रहूँ तो क्या फर्क पड़ेगा? आपकी शोभा कम नहीं होगी! आपकी शोभा यथावत् है, आप अपने मन में तनिक भी अफसोस न करें | मैं यहाँ पर प्रसन्न हूँ।
आपका
श्रेणिक __ पत्र लेकर सुमंगल आनन-फानन राजगृही पहुँचा। पत्र महाराजा को दिया। महाराजा ने एकांत में पत्र खोलकर पढ़ा। उनका मन संतुष्ट हुआ । उन्होंने पत्रव्यवहार चालू रखने का सोचा । 'वह स्वमानी पुत्र है... उसका मन उल्लसित हो वैसा पत्र मुझे लिखना चाहिए!'
महाराजा ने एक मधुर पत्र लिखा। 'मेरे बेटे श्रेणिक!
तेरा पत्र पढ़कर मेरा दिल शांत हुआ, पर जब तू यहाँ पर नहीं आएगा.. दूर-दूर रहेगा... तब-तक दिल में आनंद तो नहीं उछलेगा! बेटा, मेरा और तेरे भाइयों का तू ही तो आधार है! जैसे जहाज के बगैर समुद्र को तैरना मुश्किल है... अशक्य है... वैसे ही तेरे बगैर हम जीवन सागर में तैर नहीं सकते...। इसलिए मेरे वत्स, तू यहाँ चला आ और तेरे दर्शन कर के मुझे तृप्त होने दे।'
- तेरा दुःखी पिता
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