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अभयकुमार
‘परंतु... तुम सब हिलमिलकर रहो... सभी श्रेणिक की आज्ञा मानो... यह बहुत ही जरूरी है... बोलो, तुम्हें यह कबूल है ? ' ९९ पुत्र एक साथ बोल उठे :
'हाँ, हमें कबूल है... हम श्रेणिक की आज्ञा का पालन करेंगे और पिताजी, हम सब साथ में मेलजोल से रहेंगे । आप निश्चिंत होकर आपकी आत्मकल्याण की प्रवृत्ति में लीन बनें । '
महाराजा प्रसेनजित को आनंद हुआ । पुत्रों की प्रेमभरी बात सुनकर उन्हें संतोष हुआ। उन्होंने मंत्रीमंडल को बुलाया और अच्छे मुहूर्त में श्रेणिक का राज्याभिषेक करने की आज्ञा दी ।
सारी राजगृही में यह बात फैल गई । प्रजा ने भी खुशी और आनंद का अनुभव किया। शुभ और पवित्र मुहूर्त में बड़ी धूमधाम और उत्सव के साथ श्रेणिक का राज्याभिषेक कर दिया गया ।
महाराजा और महारानी दोनों ने निवृत्ति ली। अब वे तमाम प्रकार की चिंताओं से मुक्त हो चुके थे ।
९९ भाई अपने बड़े भाई राजा श्रेणिक के प्रति पूरी तरह वफादार थे। श्रेणिक की हर आज्ञा... प्रत्येक बात को वे मानने लगे थे।
श्रेणिक ने राजा बनते ही प्रथम कार्य शिथिल हुई और गड़बड़ाई हुई राज्य व्यवस्था को सुव्यवस्थित करने का किया ।
उसने मंत्रीमंडल का निरीक्षण किया ... तो महसूस किया कि अधिकांश मंत्री लोग मनस्वी बन गये थे... मनमानी कर रहे थे। राजा या प्रजा की कोई बात सुनते ही नहीं थे... खुद को जो जंचे, वही करने पर उतारू थे।
राज्य का अधिकारी वर्ग भी घूसखोर हो गया था। अपनी जिम्मेदारी कोई समझता ही नहीं था... । बस, कैसे पैसे बनाना ... यही सबका एकमेव लक्ष्य था । प्रजा के साथ बेरहमी से वे पेश आते थे।
इस तरह की परिस्थिति का लाभ इधर-उधर के राजा लोग उठा रहे थे.... वे न तो महाराजा के दरबार में महाराजा को प्रणाम करने आते थे... न राज्य MODI कर चुकाते थे।
राज्य की सेना भी आलसी और जड़ हो गई थी । सेनापति लोगों को सैन्य की परवाह ही नहीं थी । शस्त्रागारों में से शस्त्रों की चोरी हो जाना आम बात थी। राज्य में चोर लुटेरों का उपद्रव बढ़ता जा रहा था ।
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