Book Title: Rajkumar Shrenik
Author(s): Bhadraguptasuri
Publisher: Mahavir Jain Aradhana Kendra Koba

View full book text
Previous | Next

Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir बिकना चंदन वृक्ष का श्रेणिककुमार ने सोचा : ___ मैं यहाँ आया हूँ... तो इस नगर को घूमघाम कर देख भी लूँ! पर अब मेरे पास लाखों की कीमत के रत्न हैं... और लोग मुझे जान भी गये हैं। मैं अकेला हूँ। शायद कभी कोई धूर्त लोग लोभ के कारण मुझे लूटने का प्रयास भी करें! इसलिए बेहतर होगा कि मैं रत्न के प्रभाव से अपना रूप बदल डालूँ!' उसने सत्रहवें रत्न की स्मृति की... उसका रूप बदल गया। उसने दर्पण में देखा... अपना बदला हुआ रूप देखकर वह हँस पड़ा! उसने सभी रत्न ठीक से सम्हालकर अपने पास रखे थे। उसने नगर में प्रवेश किया। नगर के राजमार्ग पर चलते-चलते उसने एक बड़ी दुकान देखी... पर दुकान पर ग्राहकों की आवाजाही खास थी नहीं। उसने सोचा : 'चलो... थोड़ी देर इस दुकान पर सुस्ता लूँ।' वह दुकान धनसेठ की थी। कुमार दुकान पर जाकर बैठ गया। अभी तो पाँच मिनट ही हुए थे कि इतने में धनसेठ की दुकान पर ग्राहकों का टोला इकट्ठा हो गया । धनसेठ को उस दिन काफी कमाई हुई। धनसेठ चकोर थे... उन्होंने कुमार को दुकान के भीतर बैठा हुआ देखा | उन्होंने सोचा : 'यह युवक भाग्यशाली लगता है! इसके पुनित आगमन से ही मुझे आज इतनी कमाई हुई है। वरना एक दिन में इतने रुपये मैंने कब कमाये थे! देव के द्वारा दिये गये स्वप्न के मुताबिक ही यह युवान आया लगता है।' धनसेठ ने कुमार से कहा : __'परदेशी जवान! देख... इधर एक बर्तन में मींढल के फल हैं, दूसरे में रोहिणी वृक्ष की छाल है... तीसरे बर्तन में यव है... यह सब मैं कल ही खरीद कर लाया हूँ। इधर यह गलोसत्व... कचूरा वगैरह भी चौथी छाबड़ी में है। त्रिफला, सुंठ, सिंधव वगैरह पाँचवें बर्तन में है। कुमार, इसमें से तुझे जो भी चाहिए, बिना झिझक या संकोच के तू ले ले।' कुमार जरा हंस दिया। उसने कहा : 'सेठ, तुम तो बड़े उदार नजर आते हो... पर मुझ पर इतना प्यार बरसाने का कुछ कारण? हालाँकी, लगता है... उदारता तुम्हारा स्वभाव ही होगा।' धनसेठ भी मुस्करा उठे। उन्होंने कहा : 'परदेशीकुमार, इस दुनिया में सभी को स्वार्थ ही प्रिय है... परमार्थ तों किसी बिरले को ही प्रिय होता है!' For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99