Book Title: Raichandra Jain Shastra Mala Syadwad Manjiri
Author(s): Paramshrut Prabhavak Mandal
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 20
________________ स्याद्वादमं. ॥५॥ है । परंतु जो लौकिक जन है वे देवोंको ही मुख्यतासे पूज्य मानते है । उन देवोंके भी भगवान ही पूज्य है, ऐसे आशयको इस रा. जै. शा. विशेषणसे जनाते हुए आचार्य भगवानके देवाधिदेवपना सूचित करते है । इस प्रकार पूर्वार्धमें चार अतिशयोंका कथन किया गया है । अनन्तविज्ञानत्वं च सामान्य केवलिनामप्यवश्यंभावीत्यतस्तद्व्यवच्छेदाय श्रीवर्द्धमानमितिविशेष्यपदमपि विशेषणरूपतया व्याख्यायते । श्रिया चतुस्त्रिंशदतिशय समृद्ध्यनुभवात्मकभावात्यरूपया वर्द्धमानं वर्द्धिष्णुम् । नन्वतिशयानां परिमिततयैव सिद्धान्ते प्रसिद्धत्वात्कथं वर्द्धमानतोपपत्तिः । इतिचेन्न । यथा - निशीथ चूर्णो भगवतां श्रीमदर्हतामष्टोत्तरसहस्रसङ्घयबाह्यलक्षणसङ्ख्याया उपलक्षणत्वेनाऽन्तरङ्गलक्षणानां सत्त्वादीनामानन्त्यमुक्तमेवमतिशयानामधिकृतपरिगणनायोगेऽप्यपरिमितत्वमविरुद्धम् । ततो नाऽतिशयश्रिया वर्द्धमानत्वं दोषाश्रय इति । अब अनंतविज्ञानत्व जो है वह तो सामान्यकेवलियों के भी नियमसे होता है । इसकारण उन सामान्यकेवलियोंको श्रीवर्धमानस्या मीसे जुदे करनेके लिये 'श्रीवर्धमान' यह जो विशेष्यपद है, उसका भी विशेषणरूपतासे व्याख्यान करते है अर्थात् 'श्रीवर्धमान ' इस विशेष्यको विशेषण मानकर कहते है । चौतीस ३४ अतिशयोंकी वृद्धि अनुभवलक्षण भावअर्हतपनेरूप जो लक्ष्मी है, उसकरके वर्द्धमान अर्थात् बढ़ते हुए है उनको । शंका- शास्त्रमें अतिशय परिमितरूपसे ही प्रसिद्ध है अर्थात् चौतीस सख्याके धारक ही है । | इसलिये ' अतिशयोंसे बढते हुए ' यह कहना किसप्रकार बन सकता है । समाधान - यह तुम्हारी शंका ठीक नहीं है । क्योंकि, | जैसे 'निशीथचूणी' नामक ग्रथमें श्रीअर्हन्त भगवान्के एकहजार आठ संख्या परिमाण जो बाह्य लक्षण है, उनकी संख्याको उपलक्षणरूप मानकर सत्त्व आदि अन्तरग लक्षणोंको अनन्त कहे है, इसीप्रकार यद्यपि उपलक्षणसे शास्त्रमें चौतीस अतिशय ही प्रसिद्ध है, | तथापि उनको यदि संख्यारहित माने जावै तो शास्त्रसे कोई भी विरोध नही है । इसकारण ' अतिशय लक्ष्मीसे बढ़ते हुए' ऐसा विशेषण जो हमने कहा है, सो दोषका आधार नही है अर्थात् इसमें कोई भी दोष नही है ॥ अतीतदोषता चोपशान्तमोहगुणस्थानवर्तिनामपि सम्भवतीत्यतः क्षीणमोहाख्याप्रतिपातिगुणस्थानप्राप्तिप्रतिपत्त्यर्थ जिनमितिविशेषणम् । रागादिजेतृत्त्वाज्जिनः । समूलकापङ्कषितरागादिदोष इति । अवाध्यसिद्धान्तता १ ख पुस्तके सम्भविनीत्यत । इति पाठ । ॥ ५॥

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