________________ लिये महत्वपूर्ण माना है, क्योंकि तप के द्वारा आन्तरिक अशुद्धियाँ नष्ट होती हैं। सत्संगति का भी महत्व कम नहीं है क्योंकि संग व्यक्ति के उन्नति एवं अवनति का एक प्रमुख कारण है। सेवाधर्म बहुत गहन है, क्योंकि सेवा के नाना रूप होते हैं; यथा भगवद्-सेवा जिसे आम भाषा में भक्ति कहा जा सकता है। इसीप्रकार बड़ों की सेवा को विनय अथवा सत्कार-सम्मान कहा जा सकता है, प्राणिमात्र की सेवा को परोपकार की संज्ञा दे सकते हैं। सेवा के अतिरिक्त शौच (पवित्रता) का भी जीवन में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि अपवित्र (गन्दे) पात्र में अच्छी से अच्छी वस्तु भी विकृत हो जाती है, इसलिये उपर्युक्त उत्तम गुणों को धारण करने से पहले व्यक्ति को अपना हृदयरूपी पात्र सर्वदा स्वच्छ रखना चाहिए। इन सामान्य धर्माचारों के अतिरिक्त विशेष आचारों के अन्तर्गत गृहस्थ एवं साधु धर्म विवेचित है। इसके अनुसार पौराणिक तथा जैन श्रमण की जीवनचर्या में कई महत्वपूर्ण समानताएँ हैं, यथा उसकी आन्तरिक वृत्ति समत्वप्रधान होती है, वह आन्तरिक राग-द्वेष को दूर रखते हुए सत्य को ही ग्रहण करता है। उसके लिये अहिंसादिव्रत पूर्ण रूप से पालनीय हैं। बाह्य जीवन भी मर्यादित होता है। आहार, प्रवास-निवास आदि के सम्बन्ध में भी कई मर्यादाएँ निर्धारित की गई हैं। योगी के योगाचार के अन्तर्गत अष्टांग योग निरूपित हैं। / गृहस्थधर्म के धारक गृहस्थ का जीवन भी अनेक मर्यादाओं से सुसम्पन्न होता है, परन्तु वे मर्यादाएँ मर्यादित होती हैं। आंशिक निवृत्ति का गृहस्थ के लिये निर्धारण है, जिससे उसके आवश्यक कार्यों में बाधा नहीं आये तथा उसकी जीवनचर्या तथा दायित्व निर्बाध गति से पूर्ण हो सके। आत्मकल्याण के क्षेत्र में अथवा सदाचार के पालन में वर्णादि सम्बन्धित प्रतिबंध आवश्यक नहीं हैं। प्रत्येक वर्ण का व्यक्ति अपने आध्यात्मिक उत्कर्ष को प्राप्त कर सकता है। वस्तुतः आत्मिक उन्नति किसी भी प्रकार के उम्र, वर्ण अथवा स्त्री-पुरुष आदि भेदों पर निर्भर नहीं है। उच्चता या निम्नता जन्मना प्राप्त न होकर कर्मणा ही प्राप्त होती है। ____ आचार पालन में विवेक की परम आवश्यकता है एवं साथ ही अनासक्ति भी अनिवार्य है। जगत् के समस्त पदार्थों के प्रति आसक्ति होने से व्यक्ति अपने को संयमित (मर्यादित) नहीं कर सकता। अपनी यथार्थता एवं जगत् की यथार्थता को समझते हुए व्यक्ति उनसे निवृत्त हो सकता है। अतः जगत् की अनित्यता एवं जागतिक पदार्थों की नश्वरता को देखते हुए उसके प्रति वैराग्यपूर्ण दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। . 7 / पुराणों में जैन धर्म