Book Title: Pratyakhyan Swarupam
Author(s): Rushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam
Publisher: Rushabhdev Keshrimal Jain Shwetambar Sanstha Ratlam

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Page 55
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir कातन्त्र 'हादिवच द्रष्टव्य ' मित्यनेन अबादि कार्यम् , अप, द्विच 'कुहो चुः' (७-४-२६) अन० स् 'पदा नीगि' ति पूर्वस्य नीकालत्या (सारस्वत) है न्तानि विभ्रमे | दिवादावद्, विपूर्वः, 'दिस्योर्हसादि ' ति (७-३-३) स् लोपः, स्रो०, व्यचनीकः सिद्धं ।।। बाणाश्विषडिन्दु (१६२५) मितिसंव्यति धवलकपुरवरे समहे । श्रीखरतरगणपुष्करसुदिवापुष्टप्रकाराणाम् ॥ १॥ श्रीजिन॥५२॥ | माणिक्याभिधसूरीणां सकलसार्वभौमानाम् । पट्टे वरे विजयिषु श्रीमजिनचन्द्रसूरिराजेषु ॥२॥ गीतिः । वाचकमतिभद्रगणे: शिष्यस्तदुपास्त्यवाप्तपरमार्थः । चारित्रसिंहसाधुर्व्यदधादवचूर्णिमिह सुगमाम् ॥ ३ ॥ यल्लिखितं मतिमान्धादनृतं प्रश्नोत्तरत्र किञ्चिदपि । तत् सम्यक् प्राज्ञवरः शोध्यं स्वपरोपकाराय ॥ ४ ॥ ॥ इति कातन्त्र(सारस्वत)विभ्रमावचूरिः सम्पूर्णा ॥ ROSIS SECRECRUAGA ॥५२॥ For Private and Personal Use Only

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