Book Title: Praman Mimansa
Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
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प्रमाणमीमांसा
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अथ प्रमाणमीमांसा ॥१॥ ४ अथ-इत्यस्य अधिकारार्थत्वाच्छास्त्रेणाधिक्रियमाणस्य प्रस्तूयमानस्य प्रमाणस्याभिधानात् सकलशास्त्रतात्पर्यव्याख्यानेन प्रेक्षावन्तो बोधिताः प्रवर्तिताश्च भवंति। आनन्तर्यार्थो वा अथ-शब्दः, शब्द-काव्य-छन्दोनुशासनेभ्योऽनन्तरं प्रमाणं मीमांस्यत इत्यर्थः । अनेन शब्दानुशासनादिभिरस्यैककर्तृकत्वमाह । अधिकारार्थस्य च अथ शब्दस्यान्यार्थनीयमानकुसुमदामजलकुम्भादेर्दर्शनमिव श्रवणं मंगलायापि कल्पत इति ।मंगले च सति परिपन्थिविघातात् अक्षेपेण शास्त्रसिद्धिः,आयुष्मच्छातृकता च भवति । परमेष्ठिनमस्कारादिकं तु मङ्गलं कृतमपि न निवेशितं लाघवार्थिना सूत्रकारेणेति। __५ प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन मीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत् प्रमाणं प्रमायां साधकतमम्, तस्य मीमांसा-उद्देशादिरूपेण पर्यालोचनम् । त्रयी हि शास्त्रस्य प्रवृत्तिः-उद्देशो लक्षणं परीक्षा च ।
अब प्रमाण को मीमांसा की जाती है ॥१॥
४-सूत्र में प्रयुक्त 'अथ' शब्द अधिकार अर्थ का वाचक है। इस शास्त्र में प्रमाण का अधिकार है । प्रमाण की मीमांसा यहाँ प्रस्तुत है । यहाँ 'प्रमाण' शब्द के प्रयोग से सम्पूर्ण शास्त्र के तात्पर्य (प्रयोजन) का व्याख्यान हो जाता है । इससे बुद्धिमानों को उसका बोध हो जाता है और वे उसमें प्रवृत्ति करने लगते हैं। ___अथवा 'अथ' शब्द यहाँ आनन्तर्य अर्थ का वाचक है । इसका तात्पर्य यह निकलता है कि शब्दानुशासन, काव्यानुशासन तथा छन्दोनुशासन के अनन्तर अब प्रमाण की मीमांसा की जाती है । इस कथन से यह भी सूचित हो गया कि शब्दानुशासन आदि के कर्ता-आचार्य हेमचन्द्र ही प्रस्तुत ग्रन्थ के भी कर्ता हैं। ___अधिकारार्थक 'अथ' शब्द का श्रवण, दूसरे के निमित्त ले जाए जाते पुष्पदाम और सजल घट आदि को देखने के समान मांगलिक माना जाता है। ___ 'मंगल'को विद्यमानता में प्रतिबन्धक विघ्नों का विघात हो जाता है और उससे अविलम्ब शास्त्र की सिद्धि हो जाती है । उस शास्त्र के श्रोताओं को चिरकालीन आयुष्य की प्राप्ति होती है।
सूत्रकार ने परमेष्ठी-नमस्काररूप मंगल क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर यह है कि किया तो है किन्तु उसे शब्दबद्ध नहीं किया है, क्यों कि वे अन्य को संक्षिप्त ही रखना चाहते हैं। ५-'प्रमाण' शब्द 'प्र' उपसर्ग और 'माङ्' धातु से बना है । यहाँ 'प्र' उपसर्ग का अर्थ है-प्रकर्ष और प्रकर्ष का तात्पर्य है संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय का अभाव । अभिप्राय यह निकला कि जिसके द्वारा संशयादि का व्यवच्छेद करके वस्तुतत्त्व जाना जाय वह 'प्रमाण' है। प्रमाण प्रमिति अर्थात् ज्ञप्ति में साधकतम-करण होता है।
उद्देश आदि के द्वारा किसी वस्तु का विचार करना 'मीमांसा' है। शास्त्र की प्रवृत्ति तीन तरह की होती है-(१) उद्देश (२) लक्षण (३) परीक्षा।