Book Title: Praman Mimansa Author(s): Hemchandracharya, Shobhachad Bharilla Publisher: Tilokratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board View full book textPage 9
________________ प्रमाणमीमांसा अनादय एवैता विद्याः संक्षेपविस्तरविवक्षया नवनवीभवन्ति तत्तत्कर्तृकाश्चोच्यन्ते । किं नाश्रौषीः 'न कदाचिदनीद्दशं जगत्' इति ? यदि वा प्रेक्षस्व वाचकमुख्यविरचितानि सकलशास्त्रचूडामणिभूतानि तत्त्वार्थसूत्राणीति । २ यद्येवम्-अकलङ्क-धर्मकीर्त्यादिवत् प्रकरणमेव कि नारभ्यते, किमनया सूत्रकारत्वाहोपुरुषिकया ? मैवं वोचः, भिन्नरुचियं जनः, ततो नास्य स्वेच्छाप्रतिबन्धे लौकिकं राजकीयं वा शासनमस्तीति यत्किञ्चिदेतत् । ३ तत्र वर्णसमूहात्मकः पदैः, पदसमूहात्मकैः सूत्रः, सूत्रसमूहात्मकः प्रकरणः, प्रकरणसमूहात्मकः आह्निकः, आह्निकसमूहात्मकः पञ्चभिरध्यायः शास्त्रमेतदरचयदाचार्यः । तस्य च प्रेक्षावत्प्रवृत्यंगमभिधेयमभिधातुमिदमादिसूत्रम् वास्तव में ये सकविद्याएँ अनादिकालीन हैं। किन्तु कोई उनका संक्षेप विस्तार से प्रतिपादन करता है। इस संक्षेप-विस्तार के कारण वे नवीन-नवीन रूप धारण करती रहती हैं। जो उनका संक्षेप अथवा विस्तार से निरूपण करता है, वही उनका 'कर्ता' कहलाने लगता है। क्या आपने यह नहीं सुना कि 'जगत् कभी ऐसा नहीं था', यह बात नहीं है । अर्थात् जगत् तो अपने मूल रूप में सदैव वैसा का वैसा ही रहता है। फिर भी यदि आपको देखना है कि मुझसे पूर्व जैन सिद्धान्त के सूत्र कौन-से थे, तो वाचकमुख्य उमास्वातिद्वारा रचित 'तत्त्वार्यसूत्र देख लीजिए। वे सूत्र समस्त शास्त्रों में चूडामणि के समान उत्तम हैं। २-शंका-यदि आपसे पहले वाचक उमास्वातिद्वारा रचित तत्त्वार्थसूत्र विद्यमान हैं, तो आप सूत्रकार' बनने का गौरव क्यों प्राप्त करना चाहते हैं ? अकलंक और धर्मकीत्ति आदि की भाँति प्रकरण-ग्रन्थ की ही रचना क्यों नहीं करते ? समाधान-ऐसा मत कहिए। जन-जन को रुचि में भिन्नता होती है, अतएव उसकी स्वेच्छा को रोकने के लिए न तो कोई लौकिक प्रतिबन्ध है, न राजकीय शासन है, अर्थात् विभिन्न ग्रन्थकार बिना किसी रुकावट के अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सूत्र,वृत्ति या प्रकरणादि ग्रन्थोंकी रचना करते हैं । अतएव आपके कथन में कुछ सार नहीं है। ३ -वर्गों का समूह पद कहलाता है, पदों का समूह सूत्र, सूत्रों का समूह प्रकरण (विभाग विशेष ), प्रकरणों का समूह आह्निक और आह्निकों का समूह अध्याय कहलाता है। आचार्य ने पाँच अध्यायों में इस शास्त्र की रचना की है। बुद्धिमान् पुरुष किसी भी ग्रन्थ के पठन-पाठन में तब ही प्रवृत्त होते हैं, जब उसके अभिधेय-विषय को जानकारी प्राप्त कर लें। अंतएव प्रथम सूत्र में प्रस्तुत ग्रन्थ में प्रेक्षाकारिक पुरुषों की प्रवृत्ति का अंग-प्रतिपाद्य विषय बतलाया जाता है ।Page Navigation
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