Book Title: Praman Manjari Author(s): Pattambhiram Shastri Publisher: Rajasthan Puratattava Mandir View full book textPage 8
________________ प्रस्तुत प्रकाशनमें सर्वदेवसूरिकी मूलकृति प्रमाणमञ्जरी और उसपर लिखी गई ३ भिन्न भिन्न व्याख्याएं सम्मिलित की गई हैं । व्याख्याओंकी विशिष्टता आदिके विषयमें संपादकपण्डितवर्यने, अपने प्रास्ताविक वक्तव्यमें संक्षेपमें यथायोग्य समुल्लेख किया है। - ग्रन्थकार सर्वदेवके समय आदिके विषयमें कोई निश्चित वृत्त ज्ञात नहीं होता है । शास्त्रीजीने अनुमानतः विक्रमकी १४ वीं शताब्दीमें उनके होनेकी कल्पना की है । परंतु हमारा अनुमान है कि सर्वदेव कुछ विशेष प्राचीनकालीन हैं । प्रमाणमञ्जरीकी रचनाशैली विशेष प्राचीन पद्धतिकी है । शिवादित्यकी सप्तपदार्थी और सर्वदेवसूरिकी प्रमाणमञ्जरी ये दोनों वैशेषिक दर्शनके विशिष्ट एवं समकोटिके प्रकरण ग्रन्थ हैं जिनमें वैशेषिक सूत्रमें प्रतिपादित ६ पदार्थोके बदले ७ पदार्थोंका सर्वप्रथम प्रतिपादन किया गया मालूम देता है। प्रमाणमञ्जरीकी सबसे प्राचीन हस्तलिखित प्रति काश्मीरमें डॉ. ब्युहलरको प्राप्त हुई थी जिसको उनने ११ वीं शताब्दीमें लिखी हुई बतलाई है। इस तरह जब ११ वीं शताब्दीमें लिखी हुई प्रमाणमञ्जरीकी प्रति मिलती है तो फिर इसकी रचना कम से कम. इससे पूर्व तो अवश्य ही हुई सिद्ध होती है । सो हमारे अनुमानसे १० वीं शताब्दीके अन्तमें इसका प्रणयन होना संभव है । मालूम देता है कि ग्रन्थकार काश्मीर देशका निवासी है और इसलिये इसकी कृतिका प्रचार कुछ समयके बाद, धीरे धीरे हुआ है । सबसे पहले प्रमाणमञ्जरीका उल्लेख जिसमें मिला है वह है न्यायपरिशुद्धि नामक ग्रन्थ, जिसका प्रणयन वेंकटनाथ वेदान्ताचार्यने किया है। वेंकटनाथका समय खिस्ताब्द १२६७-६९ निश्चित रूपसे ज्ञात हुआ है। इस ग्रन्थमें वेंकटनाथने एक स्थानपर हेत्वाभासोंकी चर्चा के प्रकरणमेंश्रीमहाविद्या-मानमनोहर-प्रमाणमञ्जर्यादिपठितवक्रानुमानस्यापि तथात्वम् । (देखो, न्यायपरिशुद्धि, चौखम्बाग्रन्थावलिमें प्रकाशित, पृ. २७८) इस प्रकार महाविद्या, मानमनोहर के साथ प्रमाणमञ्जरीका उल्लेख किया है । इसके टीकाकार श्रीनिवासाचार्य, जो प्रायः ग्रन्थकारके ही शिष्य समझे जानेवाले और अतः उनके समकालीन ही माने जानेवाले, ने अपनी 'न्यायसार' नामक टीकामें, इस पंक्तिकी टीका करते हुए लिखा है कि__'श्रीमहाविद्या-मानमनोहर-प्रमाणमञ्जरीति ग्रन्थनामधेयानि ।' (देखो, वही पुस्तक, वही पृष्ठ) इससे स्पष्ट है कि यह प्रमाणमञ्जरी प्रकरण ग्रन्थ विक्रमकी १५ वीं शताब्दीके पूर्व ही यथेष्ट सुदूर दक्षिण तक प्रसिद्ध हो चुका था। इसी तरह प्रत्यग्रूप भगवान् अथवा प्रत्यक्खरूप भगवान् नामक ग्रन्थकार, जो विक्रमकी १४ वीं शताब्दिके उत्तरार्द्ध और १५ वीं के पूर्वार्द्धके बीचमें हो गये ज्ञात होते हैं, उनने भी चित्सुखाचार्य रचित तत्त्वप्रदीपिका नामक १ देखो, डॉ. ब्युहलरकी काश्मीरमें की गई खोज विषयकी रिपोर्ट, पृ. २६; तथा डॉ. बेंडालका बनाया हुआ ब्रिटिश म्युजिअमके संस्कृत ग्रन्थोंका सूचिपत्र ( केटेलॉग) पृ. १३८, नं. ३३५, और इन्डिया ऑफिसके संस्कृत ग्रंथोंका सूचिपत्र, पृ. ६६६,नं. २९७५ विशेष जानने के लिये, टॉकियो (जापान)के सोतोशु कॉलेजके प्रो.ह. उइ की लिखी हुई दशपदार्थीके अनुगम रूप 'वैशेषिक फिलॉसॉफी' नामक पुस्तक, पृ. १२६.(पादटिप्पणी)Page Navigation
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