Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
View full book text
________________
८] प्राकृतपैंगलम्
[१.१२ टिप्पणी-अबुह < अबुधः (अ+बुह...अपभ्रंश शून्य विभक्ति, कर्ता कारक ए० ब०)।'ध' का 'ह' खघथधभां हः प्रा० प्र०२-२७) । बुहाणां < बुधानां (बुह+आणं; संबंध कारक ब० व० रूप । 'णं' (आणं) का विकास 'आनां' से हुआ है। तु० गणाण मज्झे (=गणानां मध्ये), कुडिलाण पेम्माणं (=कुटिलानां प्रेम्णां), सज्जणाणं पम्हसिअदसाण (=सज्जनानां विमृष्टदशानां) । मज्झे < मध्ये (मज्झ+ए अधिकरण कारक ए० व० चिह्न । इसीसे 'मांझ', 'माझि', 'मांहि,-हि. परसर्ग का विकास हुआ है, जो अधिकरण के परसर्ग हैं । दे० डॉ. तिवारी : हिंदी 8 २०९ पृ. ४४२) 'मध्ये' के साथ संस्कृत में संबंधी पद मे षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है, -'विप्राणां मध्ये', 'ग्रहाणां मध्ये सूर्यः' आदि । यही वाच्यरचनात्मक प्रयोग प्राकृत-अपभ्रंश में बना रहा है, 'बुहाणं मज्झे' । हिंदी में 'बीच' के साथ भी संबंधी पद में संबंध कारक का प्रयोग होता है:-'उसके बीच में,' 'लोगों के बीच ।'
कव्वं < काव्यं 'व' का सावर्ण्य, संयुक्ताक्षर से पूर्व के स्वर का ह्रस्वीभाव । लक्खणविहूणं < लक्षणविहीनम् (क्ष>क्ख, दे० पिशेल ६ ३०२, 'नो णः', 'इ' का 'ऊ' में परिवर्तन ।
भूअग्गलग्गखग्गहिँ < भुजाग्रलग्नखड्गेन (*०खड्गैः)-भूअग्ग (L*भुअअग्ग");'ज' का लोप, रेफ का 'ग' रूप में सावर्ण्य, पूर्ववर्ती स्वर ह्रस्वीभाव, 'लग्न', 'न' का 'ग' में सावर्ण्य, खग्गहिँ (खड्ग + हिं) (एहिँ) करण ए० व०, ब० व०, दे० तगारे 8 ८१ ए० पृ. १२१ ।
सीसं < शीर्ष । खुडिअं< खुटितं । ('ट' का सघोषीभाव (वोइसिंग); Vखुड+अ (<क्त) । जाणेइ < *जानयति (जानाति) (Vजाण+इ-जाणइ-जाणेइ । वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व०) ।
ट्ठडढाणह मज्झे, गणभेआ होंति पंच अक्खरओ ।
छपचतदा जहसंखं, छप्पंचचउत्तिदुकलासु ॥१२॥ (गाथा] १२. ट, ठ, ड, ढ, ण के मध्य में पाँच गण भेद होते है, ये गणभेद यथाक्रम से छ:, पाँच, चार, तीन तथा दो मात्रा (कला) वाले होते हैं, तथा इन्हें ही छ, प, च, त, द भी कहा जाता है।
यहाँ विभिन्न मात्राओंवाले गणों का संकेत कर रहे हैं। ये गण दो मात्रा से लेकर छ: मात्रा तक के होते हैं। दो मात्रा वाला णगण है, इसे दगण भी कहते हैं, तीन मात्रावाला ढगण है, जो तगण भी कहलाता है । ४ से ६ मात्रावाले गण क्रमश: डगण, ठगण, टगण हैं, जो उक्त कम के चगण, पगण, छगण भी कहलाते हैं ।
टिप्पणी-दृडढाणह-'ढाण+ह, अपभ्रंश मे 'ह' (-हु, हैं) संबंधकारक ब० व० का विभक्ति चिह्न है । दे० पिशेल ६३७० पृ. २५७ । पिशेल ने इसका विकास - *साम्' (सर्वनाम का षष्ठी ब० व० का चिह्न, तेषाम्, येषाम्, केषाम्) से माना है। तु० णिवत्तहँ (=निवृत्तानाम्), साक्खहँ (=सौख्यानाम्), मत्तहँ मअगलहँ (मत्तानां मदकलानाम्), सउणहँ (=शकुनानां), दे० आमो हं, हेम०८-४-३३९ ।-तणहं । होंति < भवन्ति (Vहो + न्ति, वर्तमानकालिक प्र० पु० ब० व०) । छ < षष् दे० पिशेल $ ४४१, टेसिटोरी ८०, हि० छ:, छ, छह; रा० गुज० छ ), पंच (यहाँ समास तथा छन्द के कारण 'प' का द्वित्व हो गया है । ) चउ < चतुः (साथ ही, 'चौ', तु० चउद्दस < चतुर्दश, चतुर्दशी) ।
टगणो तेरहभेओ, भेआ अट्ठाइ होंति ठगणस्स ।
डगणस्स पंच भेआ तिअ ढगणे बे वि णगणस्स ॥१३॥ गाथा] - १३. टगण तेरह प्रकार का होता है, ठगण के आठ भेद होते हैं, डगण के पाँच भेद होते हैं, तथा ढगण और णगण में क्रमशः ३ और २ भेद होते हैं।
टिप्पणी-तेरह < त्रयोदश (*त्रयदश) पिशेल 8 ४४३; हि० तेरह, रा० तेरा (उच्चारण थेरा), गुजराती तेर. दे० टेसिटोरी ६ ८० 'तेर' (आदिनाथचरित) तु. तेरस < त्रयोदशी ।
अट्ठाइ < अष्ट-अष्टौ; पिशेल ने प्राकृतपैंगलम् के 'अट्ठाइँ' रूप का संकेत किया है, दे०६ ३४२ । यह रूप अप० १२. टट्ठडढाणह-A. C. छडढाणं । मज्झे-D. मझ्झे । भेआ-K. 'भेओ होंति-D. हुंति । छप्पंच०-0. छपंच० । चउत्तिB. चउ तीअ । १३. टगणो-B. टगणे C. टगण्णे । भेआ-0. भेओ। अट्ठाइ A. D. K. अट्टाइ, C. B. अठाइ, N. अट्ठाई। भेआ-0. भेओ । बे-0. वे ।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org