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पाठ
नियमः प्रेरणार्थक क्रिया-प्रयोग नि. ९४ : प्रेरणार्थक क्रिया का प्रयोग तब होता है जब किसी भी क्रिया को करने
में कर्ता स्वतंत्र नहीं होता है। क्रिया करने के लिए (i) कर्ता दूसरे को . प्रेरणा देता है अथवा (ii) स्वयं दूसरे के लिए वह क्रिया करता है।
यथा(i) अहं सीसेण पढावमि = मैं शिष्य से पढ़वाता हूँ। fii) अहं सीसं पढावमि = मैं शिष्य को पढ़ाता हूँ। इन दोनों वाक्यों में पढ़ाने की क्रिया में अहं (मैं) की प्रेरणा है। अतः अहं के साथ सामान्य रूप से प्रयुक्त होने वाले पढ़ामि क्रिया रूप में प्रेरणार्थक आवं प्रत्यय जुड़ जाने से पढ + आव + मि = पढावमि रूप
बन जाता है। नि. ९५ : प्राकृत में प्रेरणार्थक क्रिया बनाने के लिए मूल क्रिया में आव प्रत्यय
जोड़ने के बाद काल और पुरुष-बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे
मू. क्रि प्रे.प्र... . ए.व. प्रेरर्णाक क्रियारूप .: पढ + आव - + मि = पढावमि (वर्त)
पढ + आवः + ईअ + - = पढावीअ (भूत) .पढ + आव + इहि + मि - पढाविहिमि (भवि.)
पढ + आव - + मु = पढावमु (इच्छा/आज्ञा) 'नि. ९६ : प्रेरणार्थक क्रिया के सामान्य प्रयोगों में जिससे वह क्रिया करायी जाती है
. उस कर्ता में तृतीया विभक्ति होती है। जैसे-अहं सीसेण पढावमि । (देखें; पाठ 84) और जिनके लिए वह क्रिया की जाती है उस कर्ता में
द्वितीया विभक्ति होती है। जैसे- अहं सीसं पढावमि। नि. ९७ : प्रेरणार्थक कृदन्त रूपों में मूल क्रिया में आव प्रत्यय जोड़ने के बाद
विभिन्न कृदन्तों के प्रत्यय जोड़े जाते हैं। जैसे
पढ़ + आव + इ + ऊण = पढाविऊण हे. कृ.- पढ + आव + इ + उ = पढाविउं वि. कृ.- पढ + आव + अणीअ = पढावणीअ वि. कृ.- पढ + आव + ए + अव्व = पढावेअव्व
सं. कृ.
खण्ड १
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