Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy
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सिरिसिरिवालकहा
कहामुहं
अरिहाइनवपयाइं झाइत्ता हिअयकमलमज्झमि। सिरिसिद्धचक्कमाहप्पमुत्तमं किंपि अँपेमि॥१॥ अत्थित्थ जंबुदीवे, दाहिणभरहद्धमज्झिमे खंडे। बहुधणधन्नसमिद्धो, मागहदेसो जयपसिद्धो॥२॥ जत्थुप्पन्नं सिरिवीरनाहतित्थं जयंमि वित्थरियं । तं देसं सविसेसं, तित्थं भासंति गीयत्था॥३॥ तत्थ य मागंहदेसे, रायगिहं नाम पुरवरं अस्थि । वेभार - विउल - गिरिवर - समलंकियपरिसरपएसं॥४॥ तत्थ य. सेणियराओ, रज्जं पालेइ तिजयविक्खाओ। वीरजिणचलणभत्तो, विहिअज्जियतित्थयरगुत्तो॥५॥ जस्सत्थि पढमपत्ती, नंदा नामेण जीइ वरपुत्तो। अभयकुमारो . . बहुगुणसारो चउबुद्धिभंडारो॥६॥ चेडयनरिंदधूया, · बीया जस्सत्थि चिल्लणा देवी। जीए असोगचंदो, पुत्तो हल्लो विहल्लो अ॥७॥ अन्नाउ अणेगाओ, धारणीपमुहाउ . जस्स देवीओ। मेहाइणो. अणेगे, पुत्ता पियमाइपयभत्ता ॥८॥ सो सेणियनरनाहो, अभयकुमारेण विहियउच्छाहो । तिहुयणपयडपयावो, पालइ रज्जं च धम्म च॥९॥ एयंमि पुणो समए, सुरमहिओ वद्धमाणतित्थयरो। विहरतो संपत्तो, रायगिहासन्ननयरंमि॥१०॥ पेसेइ पढमसीसं, जिटुं गणहारिणं गुणगरिहूँ । सिरिगोयमं मुणिंद, रायगिहलोयलाभत्थं ॥११ ।। सो लद्धजिणाएसो, संपत्तो रायगिहपुरोज्जाणे। कइवयमुणिपरियरिओ, गोयमसामी समोसरिओ॥१२॥
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खण्ड १
१५३
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