Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 205
________________ सुरसुन्दरीविवहो इतो- रन्ना सुरसुन्दरीइ वीवाहणत्थमुज्झाओ । पुट्ठो सोहणलग्गं, सो पभणइ राय ! निसु ॥ १५१ ॥ अज्जं चिय दिणसुद्धी, अत्थि परं सोहणं गयं लग्गं । तइया जइया मयणाइ, तीइ कुट्ठिअकरो राया भणेइ हूँ हूँ, नाओ लग्गस्स तस्स अहुणावि हु निअधूयं, एवं तओ, खणमित्रोणावि विवाहपव्वं रायसे मंतीहिं महिट्ठेहिं, तं च केरिसं १६४ : ऊसिअतोरणपयूडपडायं, नच्चिरचारुविलासिणिघट्टं, पट्टसुयघड ओज्जिअमालं, धवलदिअंतसुवासिणिवग्गं, मग्गणजणदिज्जंतसुदानं, मद्दलवायचउष्फललोयं, गहिओ ॥ १५२ ॥ परमत्थो I परिणावइस्सामि ॥ १५३ ॥ विहिअसामगिंग । समादत्तं ॥ १५४ ॥ वज्जितुरगहीरनिन्नायं । जयजयसकरंत सुभट्टं ॥ १५५ ॥ •कूरकपूरतंबोल-विसालं । पुरंधिक अविमिगं ॥ १५६ ॥ सण-सुवासिणिकयसम्माणं । जणजणवयमणि-जणियपमोयं ॥ १५७ ॥ सिंगारिअअरिदमनकुमारं । करमोयण करिदाणसुरंगं ॥ १५८ ॥ लद्धहयगयसणाहो । पुरवरीओ ॥१५९॥ संजोगो । कारि असुरसुन्दरिसिणगारं, हथलेवइ मंडलविहिचंगं, एवं विहिअविवाहो, अरिदमणो सुरसुन्दरीसमेओ, जा निगच्छइ ता भणइ सयललोओ, अंहोऽणुरूवो इमाण धन्ना एसा सुरसुंदरी य जीए रो. केवि पसंसंति निवं, वरं केवि सुन्दरं केवि तीएँ उज्झायं, केवि पसंसंति सुरसुन्दरसम्माणं, मयणाइ-विडंबणं जो सिवसासणप्पसंसं, जिणसास निंदणं एसो ॥१६० ॥ कन्नं । सिवधम्मं ॥१६१ ॥ दर्छु । कुइ ॥ १६२ ॥ प्राकृत स्वयं-शिक्षक

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