Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy
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तेणुत्तं नो जुत्तं, नरवर ! वुत्तंपि तुज्झ इय वयणं । को· कणयरयणमालं, बंधइ कागस्स कंठंमि ॥१३७ ।। एगमहं पुव्वकयं, कम्मं भंजेमि एरिसमणज्जं । अवरं च कहमिमीए, जम्मं बोलेमि जाणंतो? ॥१३८ । ता भो नरवर ! जइ देसि कावि ता देसु मज्झ अणुरूवं । दासीविलासिणिधूयं, नो वा ते होउ कल्लाणं ॥१३९ ॥ तो भणइ नरवरिंदो, भो भो महनंदणी इमा किंपि।। नो मज्झकयं मन्नइ, नियकम्मं चेव मन्नेइ ॥१४० ॥ तेणं चिअ कम्मेणं, आणीओ तंसि चेव जीइ वरो । जइ सा निअकम्मफलं, पावइ ता अम्ह को दोसो ? ॥१४१ ॥ तं सोऊणं बाला, उठ्ठित्ता झत्ति ऊबरस्स करं । गिण्हइ निययकरेणं, विवाहलग्गं व साहति ॥१४२ ॥ सामंतमंतिअंतेउरिउ वारंति तहवि सा बाला । सरयससिसरिसवयणा, भणइ सई सुच्चिअ पमाणं ॥१४३ ॥ एगत्तो . माउलओ, . एगत्तो रुप्पसुन्दरीमाया । एगत्तोपरिवारो, रुयइ अहो केरिसमजुत्तं ? ॥१४४ ।। तहवि न नियकोवाओ, वलेइ राया अईव कठिणमणो । मयणावि मुणियतत्ता, निअसत्ताओ न पचलेइ ॥१४५ ॥ तं वेसरिमारोविअ, जा चलिओ ऊंबरो निअयठाणं ।। ता. भणइ नयरलोओ, अहो अजुत्तं अजुत्तंति ॥१४६ ॥ एगे भणंति धिद्धी, रायाणं जेणिमं कयमजुत्तं । अन्ने भणंति धिद्धी, एयं अइदुब्विणीयंति ॥१४७ ॥ केवि निदंति जणणिं, तीए निंदंति केवि उवझायं । केवि. . निंदंति दिव्वं, जिणधम्म केवि निंदंति ॥१४८ । तहवि हु वियसियवयणा, मयणा तेणूंबरेण सह जंति । न कुणइ मणे विसायं, सम्मं धम्मं वियाणंति ॥१४९ ॥ ऊंबरपरिवारेणं, . मिलिएणं हरिसनिब्भरंगेणं । निअपहुणो भत्तेणं, विवाहकिच्चाई विहियाइं ॥१५० ॥
खण्ड
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