Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 202
________________ रोसेण धमधमंतो, सामंत-मंतिसहिओ, नरनाहो तुरयरयणमारूढो। विणिग्गओ रायवाडीए ॥११० ॥ कुंठ्ठाभिभूयो उंबरौ जाव पुराओ बाहिं, निग्गच्छइ नरवरो सपरिवारो । तो पुरओ जणवंद, पिच्छइ साडंबरमियंतं ॥१११ ॥ . तो विम्हिएण रन्ना, पुट्ठो संती स नायवुत्तंतो । विन्नवइ देव. निसुणह, कहेमि जणवाद परमत्थं ॥११२ ।। सामिय! सरूवपुरिसा, सत्तसया नववया ससोंडीरा।। दुट्ठकुट्ठभिभूया . सव्वे एगत्थ संमिलिया ॥११३ ।। एगो य ताणु बालो, मिलिओ ऊंबरयवाहिगहियंगो । सो तेहिं . परिगहिओ ऊंबरराणुत्ति कयनामो ॥११४ ॥ वरवेसरिमारूढो, तयदोसी छत्तधारओ तस्स । गयनासा चमरधरा, धिणिधिणिसद्दा व अग्गपहा ॥११५ ॥ गयकन्ना घंटकरा, मंडलवइ अंगरक्खगा तस्स । दद्दुलथइआवत्तो गलिअंगुलि नामओ मंती ॥११६ ॥ केवि पसूइयवाया, • कच्छादब्भेहिं केवि विकराला । · के विउंचिअपामा समन्निया सेवगा तस्स ॥११७ ॥ . एवं सो कुट्ठिअपेडएण परिवेढिओं महीवीढे । रायकुलेसु भमंतो, पंजिअदाणं पगिण्हेइ ॥११८ ॥ सो एसो आगच्छइ, नरवर ! आडंबरेण संजुत्तो । ता मग्गमिणं मुत्तुं, गच्छह अन्नं! दिसं तुब्भे ॥११९ ।। तो वलिओ नरनाहो, अन्नाइ दिसाइ जाव ताव पुरो । तो पेडयंपि तीए, दीसाइ वलियं तुरिअ तुरितं ॥१२० ।। राया भणेइ मंति, पुरओ गंतूणिमे निवारेसु । महमग्गियंपि दाउं, जेणेसिं दंसणं न सुहं ॥१२१ ॥ जा तं करेइ मंति, गलिअंगुलिनामओ दुयं ताव । नरवर पुरओ ठाउं, एवं भणिउं समाढत्तो ॥१२२ ॥ . खण्ड १ १६१

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