Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 201
________________ १६० पसीएसि ॥९६ ॥ वावि । दिति ॥ ९७ ॥ पसाएण । भणसि ? ॥ ९८ ॥ गेहंमि । सुक्खाई ॥ ९९ ॥ होइ । जो होइ पुन्नबलियो, तस्स तुमं ताय ! लहु पसीएसि । जो पुण पुण्णविहूणो, तस्स तुमं नो भवियव्वया सहावो, दव्वाइया सहाइणो पायं पुव्वोवज्जियकम्माणुगया फलं तो दुम्मिओ य राया, भणेइ रे ! तंसि मह वत्थालंकाराइ, पहिरंती कीसि हसिऊण भणइ मयणा, कयसुकयवसेण तुज्झ उप्पन्ना तात ! अहं, तेणं माणेमि पुव्वकयं सुकयं चिअ, जीवाणं सुक्खकारणं दुकयं च कयं दुक्खाण, कारणं होइ निब्भतं ॥ १०० ॥ न सुरासुरेहिं नो नरवरेहिं नो बुद्धिबलसमिद्धेहिं । कहवि खलिज्जइ इंतो, सुहासुहो कम्मपरिणामो ॥१०१ तो रुट्ठो नरनाहो, अहो. अहो अप्पपुनिआ एसा । मज्झ कयं किंपि गुणं, नो मन्नइ दुव्वियड्दा य ॥ १०२ ॥ पभणेइ सहालोओ, सामिय! किमियं मुणेइ मुद्धमई । तं चैव कप्परुक्खो, तुट्ठो रुट्ठो मयणा भणेइ धिद्धि, धणलवमित्तत्थिणो इसे जाणंता विहु अलिअं, मुहप्पियं चेव जइ ताय ! तुह पसाया, सेवयलोआ हवंति सुहिया ता समसेवानिरया किं दुक्ख़िया तम्हा जो तुम्हाणं, रुच्चइ सो ताय ! मज्झ होंउ जइ अस्थि मज्झ पुन्नं, ता होही निग्गुणोवि जइ पुण पुन्नविहीणा, तात ! अहं ताव सुन्दरोवि होही असुंदरुच्चिय, नूणं मह तो गाढयरं राया, रुट्ठो चिंतेइ एयाइ कओ लहुओ, अहं तओ वेरिणी रोसेण वियडभिउडीभीसणवयणं दक्खो भणेइ मंती, सामिय कयंतो . य ॥ १०३ ॥ सव्वे । 1. जंपेति ॥ १०४ ॥ सव्वेवि । एगे ? ॥ १०५ ॥ वरो । गुणी ॥ १०६ ॥ वरो । कम्मदोसेणं ॥१०७ ॥ दुव्वियड्डाए । एसा ॥ १०८ ॥ पलोइऊण निवं । रइवाडियासमओ ॥ १०९ ॥ प्राकृत स्वयं-शिक्षक

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