Book Title: Prakrit Swayam Shikshak
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Bharati Academy

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Page 193
________________ एवं कमेण ताणं, सुरयसुहासायलद्धनिद्दाणं । किंचावसेससमया, ताव य रयणी खयं पत्ता॥८१ ॥ रयणीमुहपडिबुद्धो, पवणगई भणइ पहसिओ मित्तो। उठेहि लहु सुपुरिस! खन्धावारं पगच्छामो॥८२ ॥ सुणिऊण मित्तवयणं, सयणाओ उट्ठिओ पवणवेगो। उवगृहिऊण कन्तं, भणइ य वयणं निसामेहि ॥८३ ॥ अच्छ तुमं वीसत्था, मा उव्वेयस्स देहि अत्ताणं । जाव अहं दहवयणं, दद्दूण लहुं नियत्तामि॥८४ ॥ तो विरहदुक्खभीया, चलणपणामं करेइ विणएणं। मम्मण-मुहुरुल्लावा, भणइ य पवणंजयं बाला ।।८५ ।। अज्जं चिय उसमओ, सामिय! गब्भो कयाइ उयरम्मि। होही वयणिज्जयरो, नियमेण तुमे परोक्खेणं ॥८६॥ तुम्हा कहेहि गन्तुं गुरूण गब्भस्स संभवं एवं। ... होहि बहुदीहपेही, करेही दोसस्स: परिहारं ॥८७ ॥ अह भणइ पवणवेगो, मह नामामुद्दियं रयणचित्तं । गेण्हसु मियंकवयणे !, एसा . दोसं पणासिहिइ ।।८८ ॥ आपुच्छिऊण कान्ता, वसन्तमाला य गयणमग्गेणं। निययं निवेसभवणं, पहसिय-पवणंजया पत्ता ॥८९ ॥ धम्मा-ऽधम्मविवागं, संजोग-विओग-सोग-सुहभावं। नाऊण जीवलोए, विमले जिणसासणे समुज्जमह सया॥९० ॥ १५२ प्राकृत स्वयं-शिक्षक

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