Book Title: Prakarantrai
Author(s): Mahabodhivijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust
View full book text
________________ प्रकरणत्रयी [20] जघन्येन च अन्तर्मुहूर्तमेव जीवन्ति अन्तर्मुहूर्तायुष इत्यर्थः / अन्तर्मुहूर्तस्यासंख्यभेदत्वान्नानात्वमवसेयम् // 38 // अथोक्तं द्वारद्वयं निगमयन्नाह-- ओगाहणाउ माण एवं संखेवओ समक्खाय / जे पुण इत्थ विसेसा विसेससुत्ताउ ते नायव्वा // 39 // . अवगाहन्ते अवतिष्ठन्ते जीवा अस्यामित्यवगाहना देहः, तस्या आयुषश्च मानं प्रमाणं एवमुक्तप्रमाणेन संक्षेपतः समाख्यातं कथितं / ये पुनरत्र विशेषदेवलोकादौ प्रतराद्याश्रित्य अवगाहनायुर्भेदादयः सन्ति ते विशेषसूत्रात् संग्रहणीप्रज्ञापनादेशैंया ज्ञातव्याः // 39 // ___ अथ तृतीयं स्वकायस्थितिद्वारमाह-, एगिदिया य सव्वे, असंख उस्सप्पिणी सकायंमि / उववज्जति चयंति य, अणंतकाया अणंताओ // 40 // सर्वे एकेन्द्रियाः पृथिव्यप्तेजोवायुप्रत्येकवनस्पतयः असंख्येयोसर्पिण्यवसर्पिणीर्यावत् स्वकाये पृथिव्यादावुत्पद्यन्ते च पुनश्चव्यन्ते म्रियन्ते पुनःपुनस्तत्रैवोत्पत्तिविनाशौ लभन्ते इत्यर्थः / तथा अनंतकायवनस्पतिजीवाः अनंता उत्सपिण्यवसर्पिणीर्यावत् स्वकाये उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते च // 40 // इत्युक्ता एकेन्द्रियाणां कायस्थितिः / अथ द्वीन्द्रियादीनां तामाहसंखिज्ज समा विगला, सत्तट्ठ भवा पणिदितिरिमणुया। उववज्जति सकाए नारय देवा य नो चेव // 41 //
Page Navigation
1 ... 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116