Book Title: Prakarantrai
Author(s): Mahabodhivijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 71
________________ [44] नवतत्व वृ. अथ स्थावरदशकमाह-तिष्ठन्त्युष्णाघभितापिता अपि तत्परिहारेऽसमर्थाः इति स्थावरास्त एकेन्द्रिया ज्ञेयाः, स्थावरत्वदायकं कर्म स्थावरनामकर्म 1 येन जीवाश्चर्मचक्षुषामदृश्या भवन्ति यथा निगोदादयस्तसूक्ष्मनामकर्म 2 येन कर्मणा जीवा अपर्याप्ता एव नियन्ते यथा निगोदास्तदपर्याप्तनामकर्म 3 येन कर्मणैकस्मिन्शरीरेऽनंतानां जीवानां निवासो भवति यथा कन्दाद्यनंतकाये तत् साधारणनामकर्म 4 येन जीवानामोंष्ठजिबादंतादयोऽवयवाऽस्थिरा भवन्ति तदस्थिरनामकर्म 5 येन नाभेरध: शरीरमशुभं स्यात् तदशुभनामकर्म 6 येन जीवा दौर्भाग्यवन्तो भवन्ति तद् दुर्भगनामकर्म 7 दुःस्वरनामकर्म-येन जीवानां स्वरः कर्णकटुरमनोज्ञश्च स्यात् 8 येन जीवानां वचनं न केनाऽपि मन्यते तदनादेयनामकर्म 9 येन जीवानामयशोऽकीर्तिश्च स्यात् तदयशोनामकर्म 10 इति पापतत्वस्य द्वयशीतिभेदाः, इति पापतत्वं 4 // 20 // , अथाऽऽश्रवतत्वस्य पञ्चमस्य द्विचत्वारिंशदभेदानाह गाथा चतुष्टयेनइंदियकसायअब्बय, जोगा पंच चउ पंच तिन्नि कमा / किरियाओ पणवीसं इमा उ ताओ अणुक्कमसो // 21 // काइअ अहिगरणीया पाउसिया पारितावणी किरिया। पाणाइवायरंभिअ परिग्गहिया मायवत्तीया // 22 // मिच्छादंसणवत्ती अप्पच्चक्खाणा य दिट्ठी पुट्ठी य / पाडच्चिय सामंतोवणीअ नेसत्थि साहत्थि // 23 // आणवणि विआरणिआ अणभोगा अणवकंखपच्चइआ। अन्नापओगसमुदाण पिज्जदोसेरिआ वहिआ // 24 //

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