Book Title: Prachin Lipimala
Author(s): Gaurishankar Harishchandra Ojha
Publisher: Gaurishankar Harishchandra Ojha

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यजुर्वेदमें (१) एकसे लगाकर परार्धतककी संख्या दी है, जिसपर विद्वान् लोग विचार करसक्ते हैं, कि अंकविद्या म जानने वालोंको इतनी संख्याका बोध होना कैसे सम्भव होसक्ता है ? ग्रीक लोग जब लिखनेसे अज्ञ थे तब वे अधिकसे अधिक १०००० तक संख्या जानते थे. इसी प्रकार रोमन लोग उक्त दशामें केवल १००० तक जानते थे, और यदि आज भी देखाजावे, तो जो जातियां लिखना नहीं जानतीं, उनमें १००००० तककी गिनती भली भांति जानना दुस्तर है. लिखना न जाननेकी दशामें भी छन्दो बद्ध ग्रन्थ बनसक्ते, और बहुत समयतक कण्ठस्थ रहसक्ते हैं, परन्तु ऐसी दशामें गयका पुस्तक बनही नहीं सक्ता, क्योंकि गद्यका पुस्तक रचने के लिये कर्ता को अपना आशय क्रम पूर्वक लिखना पड़ता है, यदि ऐसा न कियाजावे, तो पहिले दिन अपना आशय जिन शब्दों में प्रकट किया हो, ठीक वेही शब्द दूसरे दिन याद नहीं रहसक्त. कोई व्याख्यान दाता शब्दश: अपना व्याख्यान उसी दिन पीछा नहीं लिखा सक्ता, तो बिना लिखना जानने के ग्रन्थके ग्रन्थ गद्य में बनाना, और वर्षांतक उनको शब्दश: याद रखलेना क्योंकर सम्भव होसक्ता है ? प्राचीन समयमें यहां लिखनेका प्रचार भली भांति होनेका सुबूत गद्यके पुस्तक देते हैं. वैदिक पुस्तकों में बहुतसा हिरसह गया होनेसे स्पष्ट है, कि उनके बननेके समयमें लिखनेका प्रचार अवश्य था. ____ऊपर लिखे हुए प्रमाणोंसे भारतवर्ष में बहुत प्राचीन समयले लिखनेका प्रचार होना स्पष्ट पायाजाता है. इनके अतिरिक्त रामायण, महाभारत, मनुस्मृति, पुराण आदि अनेक पुस्तकों में इस विषयके कई प्रमाण मिलते हैं, परन्तु विस्तारके भयसे यहांपर नहीं लिखेगये. प्रोफेसर रॉथने वेदोंका अभ्यास करके इस विषयमें अपनी यह अनुमति प्रकट की है, कि लिखनेका प्रचार भारतवर्ष में प्राचीन समयसे ही होना चाहिये, क्योंकि यदि वेदोंके लिखित पुस्तक मौजूद न होते, तो कोई पुरुष प्रातिशाख्य न बनासक्ता. गोल्डस्ट्रकर (२) साहिबने भी प्राचीन समयमें लिखनेका प्रचार होना प्रकट किया है. (१) इमामे ऽग्नऽइष्ट काधेनव : सन्ख का च दश च दश च शत च शत च सहस्र च सहन चायुत' चायुत' च नियुत च नियुत च प्रयुत चाव॒दं च न्यर्बुद च समुद्रश्य मध्य चान्त क्ष पराधश्चता मे अग्नऽ इष्टकाध नवः सन्तमुत्रामुहिमलोके (शुक्लयजुर्वर सहिता ११२). (२) मानवकल्पसूत्रकी अंग्रेजी भूमिका ( पृ० १५). For Private And Personal Use Only

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