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शुक्ला ३ रविवार उत्तरायण संक्रान्ति और व्यतीपात" लिखा है (१). दक्षिणी गणनाके अनुसार दुंदुभि संवत्सर शक संवत् १००४ में था (२), इससे भी शक संवत् और इस संवत्का अन्तर (१००४-७ = ) ९९७ आता है.
इसलिये इसका पहिला वर्ष शक संवत् ९९८ (विक्रम संवत् ११३३ = ई० स०१०७६-७७ ) के मुताबिक होता है. इसका प्रारम्भ चैत्र शुक्ला १ से है. इस संवत्का प्रचार दक्षिणमें ही रहा था.
लक्ष्मणसेन संवत्-बंगाल के सेनवंशी राजा बल्लालसेनके पुत्र लक्ष्मणसेनने यह संवत् चलाया था. इसका प्रारम्भ तिरहुतमें माघ शुक्ला ? से मानाजाता है. इसके प्रारम्भका निश्चय करने के लिये जो जो प्रमाण मिलते हैं, वे एक दूसरेके विरुद्ध हैं.
१- तिरहुतके राजा शिवसिहदेवके दानपलमें "ल० सं० ( लक्ष्मणसेन संवत् ) २९३ श्रावण सुदि ७ गुरौ" लिख अन्तमें “सन् ८०१ संवत (त् ) १४५५ शाके १३२१" लिखा है (३), जिससे यदि इसका प्रारम्भ
रेवती, अश्विनी या भरणीपर उदय हो तो महापाखयुज संवत्सर कहलाता है (नक्षत्रण सहोदयमुपगच्छति येन देवपतिमन्त्री । तस्संसं वक्तव्यं वर्षे मासक्रमेणव । वर्षाणि कार्तिकादौन्याज्ञेयाहयानुयोगीनि । क्रमशस्तिभं तु पञ्चममुपान्त्यमन्त्यं च यहर्षम्-वाराही संहिता अध्याय ८ श्लोक १-२).
इस बार्हस्पत्य मानके संवत्सर प्राचीन दानपत्र प्रादिमें बहुत कम मिलते हैं. परिव्राजक महाराज हस्तौके दानपत्रोंमें महाचैत्र, महावैशाख, महापाट युन, और महामाध; परिव्राजक महाराज संक्षोभके एक दानपत्र में महामाघ, और कदम्बवशी मंगेशवर्माके दानपत्र में वैशाख और पौष म'वत्सर लिख हुए मिले हैं.
(१) इण्डियन एण्टिक्केरौ (बिद ८, पृष्ठ १९.. जिल्द २२, पृष्ठ १०८). (२) जेनरल कनिगहाम्स बुक आफ इण्डियन ईराज (पृष्ठ १९३). (३) जी० ए० ग्रियर्सन साहिबने यह दानपत्र विद्यापति और उसके समकालीन पुरुषोंने हालमें छपवाया है (इण्डियन एण्टिकरौ जिद १४, पृष्ठ १८०-८१), जिसमें ल• सं० २८३ छपा है, परन्तु उसके आगे “ अब्दे लक्षमणसेनभूपतिमिते दतिय हव्यजिते (२८३)" दिया है, जिससे स्पष्ट है, कि उक्त दानपत्र में लक्षमणसेन संवत् २८३ है, न कि २८३. ऐसे ही " सन् ८०७" छपा है, वह भी ८०१ होना चाहिये, क्योंकि शक संवत् १३२१ श्रावण मदि ७ को हिजरी सन् ८०१ ता. ६ निलकाद था, शक संवत् १३२१ के मुताबिक [विक्रम] संवत् १४५५ दिया है, जो दक्षिणी विक्रम संवत् है, क्योंकि हिजरी सन् ८०१ उत्तरी विक्रम सं० १४५५ प्राखिन एका २ को प्रारम्भ, पौर १४५६ आश्विन शुक्ला १ को समाप्त हुआ, अतएव
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