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है ( १). इस दानपत्रके अनुसार भी विक्रम संवत् और सिंह संवत्का अन्तर (१२६६-९६ ) ११७० आता है.
३- चौलुक्य ( वाघेला ) अर्जुनदेवके समयके वेरावलके लेख में विक्रम सवत् १३२० और सिंह संवत् १५१ आषाढ कृष्णा १३ लिखा है ( देखो पृष्ठ ३५, नोट ३). इस लेखका विक्रमी संवत् कार्तिकादि है. (देखो पृष्ठ ३५) जो चैत्रादि विक्रम संवत् १३२१ होता है. इससे विक्रम संवत् और सिंह संवत्का अन्तर ( १३२१-१५१ %3D ) १२७०, और सिंह संवत् १ विक्रम संवत् ११७१ के मुताबिक होता है. इस संवत्का प्रारम्भ आषाढ़ शुक्ला १ से है. इसका प्रचार काठियावाड़में ही रहा था.
___कोलम संवत् (कोलम्ब संवत् )-यह संवत् मलबार और कोचीनकी ओर कहीं कहीं लिखाजाता है. इसका प्रारम्भ शक संवत् ७४७ से मानाजाता है (२).
"#" ग्रीष्मको" नि" या "र", वर्षाको "व", हेमन्तको "हे", शुकपक्षको " शु", बहुल ( कृष्णा ) पक्षको “ब”, और दिवसको “दि", कभी कभी ऋतु और मासके लिये केवल ऋतुके नामका पहिला अक्षर, और पक्ष व दिन के लिये पक्ष नामका पहिला अक्षर लिखते थे, जैसे कि “ हेमन्तमासे प्रथमे " के लिये “ हे १", और “थावणबहुल पक्षदिवसे प्रयोदशे" के लिये " श्रावण ब १३" आदि. इसी प्रकार पक्ष और दिन को संक्षेपसे लिखने से शुक्लपक्ष या शुद्धके लिये "शु", और “ दिवसे " के लिये "दि” (शु दि ) लिखा जाता था. महानाम न तो बुद्द ग्याके लेख में “ सवत् २०० ६.८ ( = २६.) चैत्र शु दि ७” लिखा है. उक्त लेख में “ शु" और " दि" अक्षर स्पष्ट अलग अलग लिख हैं. भारतवर्ष में शब्दों के बीच जगह छोड़कर लिखने का बहुधा रिवाज़ न होनेके कारण वाक्यक क ल भब्द साथ लिख दिये जाते थे. ऐसे ही ये दोनों अक्षर (शु दि) भी शामिल लिख जाने लगगये, जिससे “ शदि” बना . भाषामें "श" के स्थान “स” लिखते हैं, जिससे “ शुदि” के स्थान पर “ सुदि" भी लिखने लगगये.
ऐसे ही बहुल (शा) पक्ष का “ब” और दिवसका “दि" शामिल लिख जाने से " बदि" बना है, और “ बदि" को " वदि" भी लिखते हैं ( वबयोर क्यम् ).
विक्रम सम्वत्की ११ वौं शताब्दी तक ये शब्द “ शुक्लपक्ष ” और “कृष्ण पक्ष” के स्थानपर तिथियों के पहिले लिखे हुए अबतक नहीं पाये गये ( श्रावण सदि पञ्चम्यां तियो ) परन्तु पीकेसे इस तरह भूलसे लिखने लगाये हैं, "शुदि पौर बदि" में दिवस भब्द होने के कारण फिर तिथि लगाना अशुद्ध है. “स दि ओर वदि" के बाद केवल अंक आना चाहिये.
(१) श्रीविक्रमसंवत् १२६६ वर्षे श्रीमहसवत वर्ष.........मार्गशुदि १४ गुरी ( इण्डियन एण्टिक्केरौ जिल्द २२, पृष्ठ १०८).
(२) दूसको परशुराम संवत् भी कहते हैं, और १००० वर्ष का चक्र मानते हैं. वास्तवमै यह चक्र नहीं किन्तु संवत्ही है, जिसका प्रारम्भ ई० स० ८२५ ता० २५ अगस्त से है,
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