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(७५) शिवमहन्नमामि शिरसा जटाधारिणम् । श्रीमाननेकरणभुवि(भूमि)षु पल्लवाय राज्यप्रद्र : पर
लिपिपत्र ३७ वा. यह लिपिपत्र काकत्य वंशके राजा रुद्रदेवके समयके शक संवत् १०८४ के लेखकी छापसे (१) तय्यार किया है. इसकी लिपि लिपिपत्र ३३ से अधिक मिलती है, और इसीसे वर्तमान कनड़ी लिपि बनी है.
लेखकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
श्रीमत्रि(त्रिभुवनमल्लो राजा काकत्यवंशसंभूत : । प्रबलरिपुवर्गनारीवैधव्यविधायकाचार्यः ॥ श्रीकाकत्यनरेंद्र(ई)दतिलको वैरींद्रहतापक : सत्पात्रे वसुदायकः प्रतिदिनं कांतामनोरंजकः दुष्कांताचयदूषकः पुरहर (र)श्रीपादपद्मार्च
लिपिपत्र ३८ वां. यह लिपिपल रविवर्माके दानपत्रकी छाप (२), और पर्नेल साहिबकी बनाई हुई साउथ इण्डियन पेलिओग्राफीकी प्लेट १७ से तय्यार किया गया है. इसकी लिपि शक संवत्की ८ वीं शताब्दीक आस पासकी है, जिसको "प्राचीन तामिळ" या "वहेछुत्तु" कहते हैं. यह लिपि भारतवर्षकी अन्य लिपियोंकी तरह अशोकके लेखोंकी लिपिसे नहीं बनी, किन्तु भारतवर्षके दक्षिणी विभागके रहने वाले द्रविडियन लोगोंकी निर्माणकी हुई एक स्वतंत्र लिपि है, क्योंकि इसके अक्षर अशोकके लेखोंके अक्षरोंसे बिल्कुल नहीं मिलते (३), और इसमें केवल उतनेही अक्षर हैं, जो उन लोगोंकी भाषामें बोलेजाते हैं. इस लिपिके बननेका समय निश्चय करनेके लिये कोई साधन नहीं है, परन्तु आठवीं शताब्दीके पहिलेसे इसका प्रचार अवश्य था. दक्षिणकी लिपियों में इसका मिश्रण कुछ कुछ हुआ है, और इस लिपिके जो दानपत्र मिले है, उनकी भाषा मंस्कत और प्राकृतसे बिल्कुल भिन्न है, इसलिये अस्ली पंक्तियें नहीं दी गई.
(१) इण्डियन एण्टिकरौ ( जिल्द ११, पृष्ठ १२-१७ के बीचको प्लेटें ). . (२) इण्डियन एण्टिक्केरौ (जिल्द २०, पृष्ठ २९० के पासको प्लेट),
(३) कैवल “ई, प और र" कुछ कुछ अभोकके लेखोंको लिपिसे मिलते हैं,
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