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दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ईस वोव्याद्वेधसा येन (?) यन्नाभिकमलतं । हरश्च यस्य कान्तेन्दुकलया समलङ्कृतं । स्वस्ति स्वकीयान्वयवशकर्ता श्रीराष्ट्रकूटामलवशजन्मा । प्रदानशूरः समरैकवीरो गोविन्दराजः क्षितिपो बभूव ॥ यस्या मात्रजयिन : प्रियसाहसस्य क्षमापालवेशफलमेव बभूव सैन्यं । मुक्त्वा च शङ्करमधीश्वरमीश्वराणां नावन्दतान्यममरे
लिपिपत्र १५ वां (१). यह लिपिपत्र राजीम (मध्य प्रदेशमें ) से मिले हुए राजा शिवरदेवके दानपत्रकी छापसे (२) तय्यार किया है. इसकी लिपि और अक्षरोंके सिरकी आकृति लिपिपत्र छठेसे मिलती है. इसमें 'इ' और 'ई। के चिन्होंका भेद स्पष्ट नहीं है.
दानपत्रकी अस्ली पंक्तियोंका अक्षरान्तर:
ई जयति जगत्र(त्व)यतिलक[:] क्षितिभृत्कुलभवनमङ्गलस्तत्र त्रि (श्री)मत्तिवरदेवो धौरेय[:] सकलपुण्यकता(तां) स्त(स्व)स्ति श्रि(श्री)पुरासमधिगतपञ्चमहाशब्दानेकनतनृपतिकिरि(री)टकोटिघृष्टचरणनखदर्पणोद्भासितोपि कण्ठदुन्मुखप्रकटरिपुराजलक्ष्मि(क्ष्मी)केशपाशाकर्षणदुर्ललितपाणिपल्ल[वो]निशितनिस्तृ(स्त्रि)शघनघातपातितारिद्विरदकुम्भमण्डलगलब()हलशोणितसदासिक्तमुक्ताफलप्रकरमण्डितरणाङ्गणदि(वि)विधरत्नसंभारलाभलोभविजृम्भमाणारिक्षारवारिवाड
लिपिपत्र १६ वां. यह लिपिपत्र मारवाड़के पडिहार (प्रतिहार) राजा कक्कुअ (ककुक) के विक्रम संवत् ९१८ के लेखकी दो छापें, जो जोधपुरके प्रसिद्ध इति. हासवेत्ता मुन्शी देवीप्रसादजीने भेजी, उनसे तय्यार किया है. इसमें 'अ' और 'आ' विलक्षण हैं, तथा 'ई' और 'ओ' भी हैं.
(१) १४ वां लिपिपत्र छपजाने बाद यह लिपिपत्र तय्यार करना उचित समझा गया, जिससे इसको यहां रक्खा है, नहीं तो यह लिपिपत्र छठे के बाद रक्खा जाता,
(२) कार्पस इन्स्क्रिप मनम् इण्डिकेरम् ( जिल्द ३, नेट ४५ ),
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