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प्राचीन लिपियोंका पढ़ाजाना
सन् १७८४ .ई० ता० १५ जन्वरीको सर विलियम जोन्सकी प्रेरणासे एशिया खण्डके इतिहास, शास्त्र, कारीगरी (शिल्प), तथा साहित्य आदिका शोध करनेके निमित्त “ एशियाटिक सोसाइटी" नामका एक समाज कलकत्ता नगरमें स्थापन हुआ, जिसमें बहुतसे विद्वान् शामिल होकर अपनी अपनी रुचिके अनुसार भिन्न भिन्न विषयोंमें समाजका उद्देश सफल करनेको प्रवृत्त हुए. कितनेएक विद्वानोंने ऐतिहासिक विषयों के शोधमें लगकर प्राचीन लेख, दानपत्र, सिक्के, तथा ऐतिहासिक पुस्तकोंका टटोलना प्रारम्भ किया. इस प्रकार प्रथम भारतवर्षकी प्राचीन लिपियोंपर विद्वानोंकी दृष्टि पड़ी.
__ सन् १७८५ ई० में चार्ल्स विल्किन्स साहियने दीनाजपुर ज़िलेके पदाल स्थानके पास मिला हुआ एक स्तम्भपरका लेख पढ़ा, जो यंगालके राजा नारायणपालके समयका था (१), उसी वर्षमें पंडित राधाकान्त शर्माने दिल्लीकी फीरोजशाह लाटपरके चौहान राजा वीसलदेव अर्थात् विग्रहराज (२) के समयके लेख पढ़े. इन लेखोंकी लिपि देवनागरीसे बहुत मिलती हुई होनेके कारण ये आसानीके साथ पढ़ेगये, परन्तु इसी वर्ष में जे० एच० हेरिंग्टन साहिबने बुद्धगयाके पासवाली " नागार्जुनी" और "बराबर" की गुफाओंमें इनसे अधिक पुराने, मौखरी वंशके (३) राजा
(१) सन् १७८१ ई० में विल्किन्स साहिब ने " मंगेर" से मिला हुआ, बंगालके राजा देवपालका एक दानपत्र पढ़ा था, परन्तु वह भी सन् १७८८ ई० में छपा (दूसरी बार छपी हर एशियाटिक रिसर्चज, जिल्द १, पृष्ठ ११० - १७).
(२) यह राजा अच्छा विहान् था. इसने (विक्रम ) संवत् १२१. में "हरकेलि” नाटक रचा था, जिसका कुछ हिस्सह शिलापर खुदा हुआ अजमेरको ढाई दिनके झंपड़े में रक्खा हुआ है. इसका बनाया हुआ एक श्लोक वल्लभदेवने सभापितावली में दिया है ( सुभाशितावली, पृष्ठ १९५, श्लोक १११२).
(३) जेनरल कनि गहामको मिट्टी की एक मुद्रा ( मुहर ) गयासे मिली है, जिसपर पाली पक्षरोंमें “ मोखलीणां” ( मौखरीणां) पढ़ा जाता है ( कार्पस इस्क्रिपशनम् इरिकेरम्, जिल्द तीसरीकी भूमिका, पृष्ठ १४), जिससे इस वंशका बहुत प्राचीन होना पाया जाता है. बाणभट्टने हर्षचरितमें श्रीहर्षकी बहिन राज्यौका विवाह इसी वपके राजा अवन्तिवर्माके पुत्र ग्रहवर्माके साथ होना लिखा है (बम्बईका छपा हुआ हर्षचरित, उच्छवास ४, पत्र १५६ ). देव बर्नारकसे मिले हुए एक लेखमें शर्व वर्मा के बाद अवन्तिवर्माका नाम है, जो इसी ग्रहवर्माका पिता होगा (आर्किथालाजिकल सर्वे आफ इण्डिया-रिपोर्ट, जल्द १६, पृष्ठ ७४, ७८).
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