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नहीं हैं। वे व्यक्ति के गहन अचेतन में हैं। वे विचारों में और स्वप्नों में नहीं हैं। सपनों का या विचारों का विश्लेषण कोई बहुत अधिक मदद नहीं कर सकेगा। अधिक से अधिक यह व्यक्ति को स्वाभाविक से अस्वाभाविक बना देगा, उससे कुछ अधिक नहीं ।
इसका आधारभूत कारण तो यह है कि तुम विचारों की भीड़ के शोर के प्रति सजग नहीं हो, तुम विचारों के साथ एक हो जाते हो, विचारों से पृथक, अलग-थलग नहीं रह पाते हो तुम विचारों को दूर से, तटस्थ रहकर साक्षी होकर, जागरूक होकर नहीं देख पाते हो। और जब कारण को गलत दिशा में खोजा जाता है, तो वर्षों विश्लेषण चलता है, जैसा कि आज पश्चिम में हो रहा है।
वर्षों मनोविश्लेषण चलता है -- और उससे परिणाम कुछ भी नहीं निकलता है। खोदते पहाड़ हैं और चूहा भी नहीं मिलता। पहाड़ खोद लेते हैं -परिणाम कुछ भी हाथ नहीं आता है। लेकिन इस तरह से मनोविश्लेषक खोदने में कुशल हो जाते हैं और उनके न्यस्त स्वार्थ इसमें जुड़ जाते हैं तो पूरा जीवन वे लोगों का मनोविश्लेषण ही करते रहते हैं। स्मराग रहे, जब सही दिशा में व्यक्ति देखना भूल जाता है, तो वह गलत दिशा में ही आगे बढ़ता चला जाता है – फिर कभी वापस घर लौटना नहीं हो सकेगा।
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ऐसा हुआ.
दो आयरिश आदमी न्यूयार्क पहुंचे। वे वहा पर अधिक नहीं घूमे थे, इसलिए उन्होंने रेलगाड़ी में यात्रा करने की सोची। जब वे रेल में यात्रा कर रहे थे, तो एक लड़का फल बेचने के लिए आया। संतरे और सेव को तो उन्होंने पहचान लिया, लेकिन वहां पर कुछ ऐसे फल भी थे जो उन्होंने पहले कभी देखे ही नहीं थे। अतः उन्होंने उस फल बेचने वाले लड़के से पूछा, यह कौन-सा फल है ?
वह लड़का बोला, 'यह केला है।'
'क्या यह खाने में अच्छा है?'
वह लड़का बोला, 'एकदम बढ़िया है।'
'तुम इसे खाते कैसे हो?' उन्होंने पूछा।
उस लड़के ने केला छीलकर उन्हें दिखाया तो उन दोनों ने एक-एक केला खरीद लिया। उनमें से एक ने थोड़ा सा ही केला खाया था कि उसी वक्त रेल एक सुरंग में प्रवेश कर गई।
वह आयरिश आदमी कहने लगा, 'हे परमात्मा! मित्र अगर तुमने वह बेहूदी चीज अभी तक नहीं खाई हो, तो अब खाना भी मत । मैंने खाई और मैं अंधा हो गया।’
संयोग कारण नहीं हुआ करते हैं; और पश्चिमी मनोविज्ञान संयोगों में ही छान-बीन कर रहा है। कोई व्यक्ति उदास है और तुम तुरंत कोई सांयोगिक घटना खोजना शुरू कर देते हो कि वह उदास क्यों
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