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प्रस्तावना
जो तट का उल्लंघन कर रहा है, मणियों से व्याप्त है और अपने पुत्र के दर्शन ज्ञान चारित्ररूपी रत्नों की खान के समान प्रतीत हो रहा है, ऐसे लहराते हुए समुद्र को देखा ।। १०३ ।।
११ वें सर्ग में १६ स्वप्नों का फल, देवियों द्वारा पार्श्वनाथ की माता की सेवा एवं पार्श्व के जन्म का वर्णन किया गया है। काव्य के इस सर्ग में माता की सेवा सुश्रूषा करते हुये उनसे जो विभिन्न प्रश्न पूछे गये और माता ने उनका जो सहज किन्तु गम्भीर उत्तर दिया वह हमारे महाकवि के महान् पांडित्य का सूचक हैं। देवियों द्वारा किये गये सभी प्रश्नों का उत्तर दूसरा भी दिया जा सकता था, किन्तु माता के उत्तर धार्मिक पथ को सबल करने वाले हैं।
रतिः क्वात्र विधेया सधानाध्ययनकर्मसु । धर्मे रत्नत्रये मुक्तिनार्या गुर्वादिसेवने ।। ८६ ।। किं श्लाघ्यं तुच्छद्रव्येऽपि पात्रदानमनेकशः । निः पापाचरणं यच्च तयोर्बाल्येऽतिदुः करम् ।। ८७ ।।
१२ वें सर्ग में देवों द्वारा जन्माभिषेक के उत्सव का वर्णन किया गया है। तथा १३ वें सर्ग में बालक पार्श्व को आभूषण पहिना कर उसके समक्ष इन्द्र द्वारा किये गये नृत्य का वर्णन है । १८ वें सर्ग में पार्श्वनाथ के समवसरण रचना का विस्तृत वर्णन है। समवसरण का अर्थ तीर्थंकर की धर्मसभा से है जहाँ पार्श्व का सर्वोपदेश होता था। कंन्तुको चना भी पूर्णत: टेक्निकल हैं। भट्टारक सकलकीर्ति ने समवसरण की रचना का बहुत ही सुन्दर वर्णन किया है जो उनके गहन ज्ञान का द्योतक है। इस प्रकार प्रस्तुत महाकाव्य में पाँचों ही कल्याणकों का जो वर्णन हुआ है वह आकर्षक एवं गम्भीर है एवं महाकवि के पांडित्य का सूचक
है ।
पार्श्वनाथ का जन्म और निर्वाण
पार्श्वनाथ भगवान महावीर के समान ही ऐतिहासिक महापुरुष हैं। सभी इतिहासकारों ने एक मत से उनको श्रमण परम्परा के तीर्थङ्कर के रूप में स्वीकार किया है। उनका जन्म वाराणसी में हुआ । उनके पिता वाराणसी के राजा विश्वसेन एवं माता महारानी ब्राह्मी थी। उनका जन्म भगवान महावीर के जन्म से लगभग ३५० वर्ष पूर्व हुआ । तीस वर्ष तक राजकुमार का जीवन व्यतीत करने के पश्चात् उन्होंने निर्मन्थ दीक्षा धारण कर ली। कठोर तपश्चर्या के पश्चात् उन्हें कैवल्य हो गया। समीचीन मार्ग का उपदेश देते हुये उन्होंने कुरू, कौशल, काशी, सुहम, पुण्ड्र, मालव, अंग, बङ्ग, कलिङ्ग, पंचाल, मगध, विदर्भ, भद्रदेश तथा दशार्ण आदि अनेक देशों में विहार किया। उनका विशाल संघ था जिसमें १६ हजार तपस्वी मुनि, ३६ हजार आर्यिकाएं, एक लाख श्रावक एवं तीन लाख श्राविकाएँ थीं। अपने विशाल संघ के साथ पार्श्वनाथ सम्पेदाचल के शिखर पर आये और एक माह का योग निरोध कर प्रतिमा योग धारण कर लिया और अन्त में श्रावण शुक्ला सप्तमी के पूर्वाह्न काल में विशाखा नक्षत्र तथा उत्तम शुभ लग्न में उन्हें निर्वाण प्राप्त हो गया। इस समय उनकी सौ वर्ष की आयु थी लेकिन प्रस्तुत महाकाव्य में इनकी आयु का कोई उल्लेख नहीं किया ।
पार्श्वनाथ के जीवन की दो घटनाओं का उल्लेख प्रायः सभी दिगम्बर आचार्यों ने समान रूप से किया है। एक घटना उनके राजकुमार काल की है, जब उन्होंने एक पंचाग्नि तपस्या में लीन साधु को ज्ञानहीन कायक्लेश सहने को मना किया तथा अपने अपूर्व ज्ञान से उनके चारों ओर जलती हुई लकड़ी के अन्दर सर्प और सर्पिणी का जोड़ा होने की बात कही। लेकिन उस वृद्ध तपस्वी ने बालक की बात की परवाह किये बिना क्रोधाभिभूत होकर उस लकड़ी को काट डाला जिसमें नाग युगल था । लकड़ी ९- देखिये ९४ १९९