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पूजा का पुरातात्विक प्रमाण देवी की वह प्रतिमा है जो नरेश उदयादित्य के शासनकाल में धार में लारा बनिया वर्ग ने स्थापित की थी ( अभिलेख क्र. २५) । इसी प्रकार मांडू में कालिका देवी के मंदिर में स्थापित देवी प्रतिमा की प्राचीनता भी परमार युग तक जाती है (बार्नेस - धार एण्ड मांडू, बम्बई, १९०२, पृष्ठ ३५३) । समकालीन मंदिरों में सभागृहों के प्रवेश द्वारों की डाटों में निर्मित मूर्तियों में शिव के साथ पार्वती का चित्रण सदैव दिखलाई देता है ।
सरस्वती पूजा
परमार नरेशों की साहित्यिक रुचि एवं प्रयासों के कारण देवी सरस्वती को अत्याधिक सम्मान प्राप्त हुआ । देवी सरस्वती वाग्देवी नाम से प्रख्यात थी ( अभिलेख क्र. १५) । मांडू से प्राप्त अभिलेख ( क्र. ७८) में सरस्वती देवी का गुणगान है। भोजदेव सरस्वती का सर्वविख्यात भक्त था। उसके शासनकाल में सरस्वती ही धारा नगरी में भोजशाला की अधिष्ठात्री देवी थी । १०३४ ईस्वी में निर्मित सरस्वती मां की विख्यात प्रतिमा नरेश भोजदेव के सरस्वती भक्त होने का अकाट्य पुरातात्विक प्रमाण है ( अभिलेख क्र. १५) । उस युग में जैन धर्मावलम्बियों में भी सरस्वती पूजा निरन्तर रूप से चालू थी । परमारों की आबू घराने के कतिपय अभिलेख सरस्वती वन्दना से प्रारम्भ होते हैं (एपि. इ., भाग ८, पृष्ठ
२०८ ) ।
सूर्य पूजा
परमार शासनकाल में सूर्य पूजा भी प्रचलित थी । भिलसा सूर्य पूजा का प्रमुख केन्द्र था। वहाँ भैल्लस्वामिन् का भव्य मंदिर स्थित था। वहाँ से दो अभिलेख प्राप्त हुए हैं। दूसरा अभिलेख ( क्र. ७९) महाकवि चक्रवर्तिन् पंडित छित्तव द्वारा रचित सूर्य प्रशस्ति है । वह भोज का राजकवि था । महाकुमार हरिश्चन्द्र ने भिलसा में वेत्रावती ( वेतवा ) नदी के किनारे पर स्थित भैल्लस्वामिन् के समक्ष भदान किया था । जगद्देव के जैनड़ अभिलेख (क्र. ४३ ) में प्रारंभिक दो श्लोक सूर्य की प्रशंसा में हैं । उसमें निम्बादित्य (सूर्य) के मंदिर का उल्लेख भी है । विदिशा के पास ग्यारसपुर में वज्रमठ मंदिर के ध्वस्त अवशेष हैं । यह सप्त अश्वों के रथ में स्थित सूर्य का नाम है। इसी प्रकार परमार साम्राज्य में अन्य स्थानों पर भी सूर्य मंदिरों की स्थापना के उल्लेख हैं । भिनमान भी सूर्य पूजा का विख्यात केन्द्र था । वहाँ जगतस्वामिन् नाम से एक सूर्य मंदिर विद्यमान था जिसके श्रेय हेतु १०६६ ई. में एक ब्राह्मण ने अपने व्यय से सोने का कलश अर्पित किया था ( बम्बई गजेटियर, भाग १, उपभाग २, पृष्ठ ४७३-७४) । राजस्थान में भी सूर्य पूजा बहुत प्रचलित थी । शृंगारमंजरी कथा में पुत्र प्राप्ति हेतु विजयादशमी पर सूर्य पूजा करने के उल्लेख हैं ।
तीर्थस्नान
परमार युग में तीर्थस्थलों में स्नान का बहुत प्रचार था । ये तीर्थस्थल पर्वत शिखरों, कन्दराओं, वनों एवं नदी संगमों पर स्थित थे । परमार अभिलेखों में भूदान से पूर्व दानकर्ता द्वारा पवित्र जल में स्नान करने के अनिवार्य रूप से उल्लेख मिलते हैं । अभिलेखों में निम्नलिखित नदियों के उल्लेख मिलते हैं -- कपिला ( क्र. ६१, ७२), कावेरी (क्र. ७६), कुविलारा ( क्र. ३४), गर्दभ नदी ( क्र. ४), गंगा ( क्र. ३६, ७६), नर्मदा ( क्र., ४, १६, २०, ५३, ६१,७५ ), पुण्या ( क्र. ७), महानदी ( क्र. ३६ ), मणा नदी ( क्र. १६), मही नदी ( क्र. १, २), रेवा नदी ऋ, ३४, ३६, ५७, ६१, ६५, ७२), वंक्षु नदी (क्र. ३६), वेत्रावती (क्र. ५२), सरयु नदी ( क्र. ४१) ।
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