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विष्णु, शेषनारायण, परशुराम, राम, युधिष्ठिर एवं कृष्ण मुरारी की अराधना करता था। विध्यवर्मन् के राजकवि विल्हण ने विष्णु की प्रशंसा में प्रशस्ति लिखी है । देवपालदेव विष्णु मंदिर के लिए दान करता है। जयतुगिदेव “बालनारायण” की उपाधि धारण कर परशुराम, राम एवं कैटभजित को नमस्कार करता है। इसी प्रकार नरेश जयवर्मन् द्वितीय भी करता है। इतना सभी होते हुए भी शिव ही सर्वाधिक मान्य एवं परमार नरेशों का संरक्षक देव था। परमारों के अभिलेख प्रायः “ओं नमः शिवायः" से प्रारम्भ होते हैं। शिव विभिन्न नामों से पूजित था, यथा-स्मरार्ती, शम्भु, महेश, भवानिपति, व्योमकेश, नटेश, ओंकार, हर, अमरेश्वर, महाकालेश्वर, कनखलेश्वर, सिद्धेश्वर, नीलकण्ठेश्वर, भोजेश्वर, सिंधुराजेश्वर, काशीविश्वेश्वर, केदारेश्वर आदि। विख्यात द्वादश ज्योतिलिंगों में तीन महाकालेश्वर, अमरेश्वर एवं ओंकार मांधाता परमार साम्राज्य में स्थित थे।
परमार राजवंशीय अभिलेखों से ज्ञात होता है कि नरेश सीयक द्वितीय शिव का विख्यात भक्त था। वाक्पति द्वितीय के अभिलेख गिरिजा एवं श्रीकण्ठ की अराधना से प्रारम्भ होते हैं। भूदान देते समय वह भवानिपति की पूजा करता था। उसने एक शिव तड़ाग भी खुदवाया था। इसी प्रकार समकालीन साहित्यिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिंधुराज शिव का महान भक्त था। उसने कुल राजधानी धारा नगरी में शिवलिंग की स्थापना की थी। भोजदेव के संबंध में उदयपुर प्रशस्ति में लिखा मिलता है कि उसने केदारेश्वर, रामेश्वर, सोमनाथ, सुंडीर, काल, अनल तथा रुद्र के मंदिरों का निर्माण करवाया था। उसने भोजपुर में भोजेश्वर मंदिर एवं चित्तौड़गढ़ में संधीश्वर मंदिर बनवाये तथा घंटोली में घंटेश्वर महादेव के मंदिर के लिए दान दिये । जयसिंह प्रथम ने अhणा में मंडलेश्वर मंदिर के लिए दान दिये। उदयादित्य का शासनकाल शवधर्म के उत्थान के लिए स्वर्णयुग कहा जा सकता है। उसको जगदेव नामक पुत्र की प्राप्ति शिव की कृपा से ही हुई थी। उसने उदयपुर में उदयेश्वर अथवा नीलकण्ठेश्वर महादेव का विख्यात मंदिर बनवाया। अन्य सैकड़ों मंदिर भी उसी के बनवाये हुए हैं। नरेश नरवर्मन् अपने अभिलेखों में शंभु व कार्तिकेय को नमस्कार करता है । शेरगढ़ से प्राप्त एक जैन प्रतिमा अभिलेख में शिव को गंगाधर रूप में नमस्कार किया गया है। नरेश जयसिंह-जयवर्मन् द्वितीय ने देपालपुर व शकपुर में शिव मंदिर तथा निमाड़ में सिद्धेश्वर महादेव के मंदिर बनवाये। इसी प्रकार महाकुमार शाखा के परमार शासक भी शिव के पुजारी थे। परमार युग में नरेशों की देखा-देखी जनता में भी शैव धर्म का खूब प्रचार हुआ। विभिन्न अभिलेखों में जन सामान्य द्वारा शैव मंदिरों के लिए दान देने के उल्लेख प्राप्त होते हैं।
शिव की पूजा प्रायः शिवलिङ्ग के रूप में होती थी। परन्तु उदयपुर में उदयेश्वर मंदिर के बाहर दीवारों पर बनी मूर्तियों में शिव एवं दुर्गा विभिन्न स्थितियों में प्रदर्शित हैं। ऊन व निमाड़ के मंदिरों में शिव एवं सप्तमातृकाओं की मूर्तियाँ बनी हुई हैं । उज्जैन से नृत्य करते शिव की प्रतिमा प्राप्त हुई है। इसी प्रकार मंदिरों के मुख्य द्वारों पर बनी डाटों में भी शिव एवं पार्वती की मूर्तियाँ बनी मिलती हैं।
परमार राजवंशीय अभिलेखों में विभिन्न देवताओं के नाम उपलब्ध होते हैं। अकारान्त क्रम में ये नाम निम्न प्रकार से हैं:-अग्नि (अभिलेख क्र. ३६), अजयेश्वर (क्र. ७१), अनल (क्र. २२), अमरेश्वर (क्र. ७२), अर्द्धनारी नटेश्वर (क्र. ४३), अरुणदेव (क्र. ३६), अष्टमूर्ति शिव (क्र. ७६), अंबिकापति (क्र. ७), इन्द्र (क्र. ३६, ५९, ६०, ६१, ६५, ७२), उदयेश्वरदेव (क्र. २४, ६६, ६७), एकल्लदेव (क्र. ७१), ओंकार देव (क्र. ७६), ओंकार लक्ष्मीपति चक्रस्वामी
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