________________
प्रस्तावना
प्रा० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें मार्गणा, जीवसमास और गुणस्थानोंमें योग, उपयोग और प्रत्यय आदिका वर्णन जिस क्रमसे किया गया है, सं० पञ्च संग्रहकारने उस क्रममें भी कुछ परिवर्तन करके विषय का संदृष्टियोंके साथ विस्तृत गद्य भागके द्वारा वर्णन किया है। दोनोंके वर्णन क्रमका अन्तर इस प्रकार है
प्राकृत पञ्चसंग्रह
१ मार्गणाओंमें जीवसमास
२ जीवसमासोंमें उपयोग
३ मार्गणाओंमें
"
४ जीवसमासोंम योग
५ मार्गणाओं में
६
गुणस्थान
39
७ गुणस्थान में उपयोग
८
योग
प्रत्यय
"1
""
९
33
१० मार्गणाओंमें प्रत्यय
संस्कृत पञ्चसंग्रह
१ मार्गणाओंमें जीवसमास
२
३
४
""
५ जीवसमासोंमें उपयोग
योग
Jain Education International
"
"
६
31
७ गुणस्थानोंमें उपयोग
८
गुणस्थान उपयोग
योग
11
योग
प्रत्यय
१० मार्गणाओंमें प्रत्यय
इस प्रकार पाठक देखेंगे कि प्रारम्भके छह वर्णनोंके क्रममें कुछ अन्तर है, शेष चार वर्णन समान हैं ।
For Private & Personal Use Only
२१
४. स्खलन या विषयका छोड़ देना
प्रा० पञ्चसंग्रहके प्रथम प्रकरणमें मिथ्यात्व गुणस्थानका स्वरूप बतलाते हुए उसके भेदादिका भी वर्णन दो गाथाओंके द्वारा किया गया है । किन्तु सं० पञ्चसंग्रहकारने उसे छोड़ दिया है। इसी प्रकार प्रथम प्रकरण की गा० १२ २८-२९, १२८, १३५-१३६, १४२-१४३, १६२-१६६, १८२-१८४ और २०६ वीं गाथामें वर्णित विषयोंकी भी अमितगतिने कोई चर्चा नहीं की है ।
प्रा० पञ्चसंग्रहके चौथे प्रकरणमें गाधाङ्क ३२५ के द्वारा यह सूचना की गई है कि ओघकी अपेक्षा बतलाया गया बन्ध-प्रकृतियों का स्वामित्व आदेशकी अपेक्षा भी जान लेना चाहिए। मूलगाथाकी इस सूचना के अनुसार भाष्यगाथाकारने गा० ३२६ से लगाकर गा० ३८९ तक उक्त वर्णन किया है । पर अमितगति इतने लम्बे सारे के सारे प्रकरणको ही छोड़ दिया है, शायद उन्होंने इस स्थलपर अपने पाठकोंको इसके कथनकी आवश्यकता का ही अनुभव नहीं किया । किन्तु ग्रन्थ- समाप्ति के पश्चात् उन्हें अपनी यह बात खटकी और उन्होंने तब निम्न मंगल एवं प्रतिज्ञा - श्लोक के साथ उसकी रचना को वह श्लोक इस प्रकार हैनवा जिनेश्वरं वीरं बन्धस्वामित्वसूदनम् । वषयाम्योध विशेषाभ्यां बन्धस्वामित्वसम्भवम् ॥ १॥
(सं० पञ्चसं० पृ० २२६ )
प्रा० पञ्चसंग्रहके पाँचवें प्रकरण में गतिमार्गणाके भीतर नामकर्मके उदयस्थानोंको कहकर गा० १९१ से लेकर २०७ गाथा तक इन्द्रियादि शेष तेरह मार्गणाओं में भी नामकर्मके उदयस्थानोंका निरूपण किया गया है । किन्तु अमितगतिने इस सर्व वर्णनको छोड़ दिया है । सम्भवतः सुगम होनेसे उन्होंने यह वर्णन
अनावश्यक समझा ।
इसी प्रकरण में गा० ४३२ से लगाकर ४७१ तककी गाथाओंके विषयको भी कोई वर्णन नहीं किया है, केवल निम्नलिखित एक लोक द्वारा उसे आगमानुसार जान लेनेकी सूचना भर कर दी है। यह श्लोक इस प्रकार है
www.jainelibrary.org