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छठा पर्व स्थावर सर्वत्र ही हैं नरकमें जो दुःख जोग भोगे हैं उसके कहनेको कौन समर्थ है ? तुम दोऊ कुगति में बहुतु भ्रमे हो ऐसा मुनिने कहा, तब यह दोऊ अपना पूर्व भव पूछते भए । संयमी मुनि कहे हैं कि तुम मन लगाकर सुनो, यह दुःखदाई संसार इसमें तुम मोइसे उन्मत्त होकर परस्पर द्वेष थरते आपसमें मरण मारण करते अनेक योनिमें प्राप्त भए तिनमें एक तो काशी नामा देश में पारधी भया, दूजा श्रावस्ती नामा नगीमें राजाका सूर्यदत्त नःमा मन्त्री भया सो गृह त्यागकर मुनि भया, महा तपकर युक्त अतिरूपवान पृथिवीमें विह र करै सो एक दिन काशीके वनमें जीव जन्तुरहित पवित्र स्थानकमें मुनि विराजे हुते पर श्रावक श्राविका अनेक दर्शनको पाए हुते सो वह पापी पारधी मुनिको देख तीक्ष्ण वचनरूप शस्त्रसे मुनिको वींधा भया। यह विचारकर कि यह निर्लज मार्गभ्रष्ट स्नानरहित मलीन मुझको शिकार में जानेको अमंग रूप भया है यह वचन पारधीने कहे तब मुनिको ध्यानका विघ्नकरणहारा संक्लेश भाव उपजा फिर मनमें विचारी कि मैं मुनि भया सो मोक् कर्त्तव्य नाही असा क्रोध उपजै है जो एक मुष्टि प्रहारकर इस पारी पारधीको चूर्ण कर डारू । सो मुनिके अष्टम स्वर्ग जायवेको पुण्य उाजा था सो कपायके योग क्षीण पुण्य होय मरकर ज्योतिपी देव भया तहांते चयकर तू विद्यकश विद्याधर भया अर वह पारधी बहुत संसार भ्रमणकर लंकाके प्रमदनामा उद्यानमें बानर भगा सो तुमने स्त्रीके अर्थ बाण कर मारा सो बहुत अयोग्य किया । पशुका अपराध सामंतों को लेना योग्य नाहीं । सो वह बानर मन्त्रके प्रभावसे उधिकुमार देव भया ।
ऐसा जानकर हे विद्याधरी! तुम पैर का त्याग करो जिाले इस में तुम्हारा भ्रमण होय रहा है जो तुम सिद्धों के सुख चाहो हो तो राग द्वेपत करो मिदोंके सुखों का मनुष्य अर देवोंसे वर्णन न हो सके अनन्त प्रभार सुख हैं जो तुम म शामिलापी हो पर भले आचारकर युक्त हो तो श्रीमुनिसुव्रतनाथकी शरण लेयो । परम भक्तिसे युक्त इन्द्र दिक देव भी तिनको नमस्कार करे हैं इन्द्र अहमिन्द्र लोकपाल सर्व उनके दासोंके दास हैं। वे वलोकनाथ तिनकी तुम शरण लेय कर परम कल्याणको प्राप्त होवोगे वे भगवान् ईश्वर कहिये समर्थ हैं सर्व अर्थ पूर्ण हैं कृतकृत्य हैं यह जो मुनिके वचन वेई भये सूर्यको किरण तिनकर विद्युत केश विद्याधरका मन कमलवत् ल गयः । सुकेश न मः पुरको राज्य देय मुनि के शिष्य भए राजा महाधीर है सम्यक दर्शन ज्ञ न चारित्रका आराधन र उत्तम देन भए। कुपुरक स्वामी राजा महोदधि विद्याधर बानरवंशीयोंके अधिपति चन्द्रकांत मणियों के महल ऊार विराजे हुते अमृतरूप सुंदर चर्चा कर इन्द्र समान सुख भोगते थे तिनपै एक विद्याधर श्वेत वस्त्र पहरे शीघ्र प्राय नमस्कार कर कहता भया कि ह प्रभो ! र ज विद्युतकेश मुनि होय स्वर्ग सिधारे यह सुनकर रजा महो. दधिने भी भोग भावस वक्त हाय जैन दाक्षामें बुद्ध धरी अर ये बचनहे कि मैं भी तपोवन को जाऊंगा।
ये वचन सुनकर राजलोक मंदिरमें विलाप करते भये सो विलाप कर महल गूंज उठा। कैसे हैं राजलोक ? वीण बांसुरी मृगकी ध्वनि समान है शब्द जिनके 'पर युवराज भी प्रायकर
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