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मांतवा पर्व दिशाका लोकपाल किया जिसके पास पाश नामा आयुध जिसका नाम सुनकर शत्रु अति डरे अर राजा किहकंधसूर्य राणी कनकावली उसका पुत्र कुबेर महा विभूमिवान उसको इन्द्रने कांचनपुरमें थापा अर उत्तर दिशाका लोकपाल किया अर राजा बालाग्नि विद्याधर रणी श्रीप्रभा उसका पुत्र यम नामा महा तेजस्वी उसको किहकंधपुर में थापा अर दक्षिण दिशामा लोकपाल किया अर असुर नामा नगर ताके निवासी विद्याधर वे असुर ठहराए अर यक्षकीनामा नगर के विद्याधर यक्ष ठहराए अर किन्नर नगरके किन्नर, गंधर्व नगरके गंधर्व इत्यादिक विद्याधरोंकी देव संज्ञा थरी । इन्द्रकी प्रजा देव जैसी क्रीड़ा करे यह राजा इन्द्र मनुष्य योनिमें लक्ष्मीका विस्तार पाय लोगोंसे प्रशंसा पाय आपको इन्द्र ही मानता भया पर कोई स्वर्गलोक है इन्द्र है देव हैं यह सर्व वात भूल गया अर श्राप ही को इन्द्र जाना, विजयागिरिको स्वर्ग जाना, अपने थापे लोकपाल जाने अर विद्याधरोंको देव जाने, इस भांति गर्वको प्राप्त भया कि मोत अधिक पृथ्वीपर और कोई नहीं, मैं ही सर्वकी रक्षा करूं यह दोनों श्रेणिका अधिपति होय ऐसा गर्वा कि में इन्द्र हूं।
__ अथानन्तर कौतुकमंगल नगरका राजा ब्योमविन्दु दृथीपर प्रसिद्ध उनके राणी मंश्वती उसके दो पुत्री भई बड़ी कौशिकी छोटी केकसी । सो कोशिकी राजा विश्रव को परणाई जे यज्ञपुर नगरके धनी, तिनके वेश्रवण पुत्र भया अति शुभ लक्षणका धरणहारा कमल सारि नेत्र जाके उसको इन्द्रने बुलाकर बहुत सन्मान किया अर लंकाके थाने राखा अर कहा-मेरे आगे चार लोकपाल है वैस तू पांचवां महा बलवान है तब वैश्रवणने विनती करी कि-"प्रभी जो आज्ञा करो सो ही मैं करू"ऐसा कह इन्द्र प्रणाम कर लंकाकों चला सो इन्द्र की आज्ञा प्रमाण लंका के थाने रहै जाको राक्षसोंकी शंका नहीं जिसकी आज्ञा विद्याधरोंके समूह अपने सिरपर धरें हैं ।
पाताल लंकाविप सुमालीके रत्नश्रवा नामा पुत्र भया महा शूर बीर दातार जगतका प्यारा उदारचिच मित्रोंके उपकार निमिच है जीवन जिसका, अर सेवकोंके उपकार निमित्त है प्रभुत्व जिसको, पंडितोंके उपकार निमित्त है प्रवीणपणा जिसका, भाइ के उपकार निमित्त है लक्ष्मीका पालन जिसक, दरीद्रयों के उपकार निमित्त है ऐश्वर्य जिसका, साधुयोंकी सेवा निमित्त है शरीर जिसका, जीवन के कल्याण निश्चि है वचन जिसका, सुकृतके स्मरण निमित्त है मन जिसका, धर्मके अर्थ है आयु जिसका, शूरवीरा मूल है स्वभाव जिसका, सो पिता समान सब जीवोंका दयालु, जिसके परस्त्री माता समान, पर द्रव्य तृण समान, पराया शरीर अपने शरीर समान, महा गुणवान, जो गुणवंतोंकी गिनती करें तहां इसको प्रथम गि% अर दोषवन्तों की गिणतीविष नहीं आवे उसका शरीर अद्भुत परमाणुवों कर रचा है जैसी शोभा इसमें पाइये तैसी और ठोर दुर्लभ है, संभाषणमें मानों अमृतही सींचे है, अर्थियों को महादान देता भया, धर्म अर्थकामम बौद्धमान, धर्मका अत्यंत प्रिय, निरन्तर धर्महीका यत्न करे, जन्मांतर से धर्म को लिये आया है, जिसके बड़ा आभूपण यश ही है अर गुण ही कुटुम्ब है सो धीर वीर बैरियोंका भय दजकर विद्या साधनेके अर्थ पुष्पक नामा बनमें गया । कैसा है वह वन, भूत पिशाचा
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