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पद्म-पुराण
की कांतिरूपी नदीका यह सेतुबंध ही है। मूंगा अर पल्लवसे अधिक लाल हैं अधर ( होठ ) जिस के, कर महाज्योतिको घरे अति मनोहर है कपोल जिसका, थर वीणाका नाद भ्रमरका गुंजार पर उन्मत्त कोयलका शब्द से अति सुन्दर है शब्द जिसका, अर कामकी दूती समान सुन्दर हैं। जिसकी, नीलकमल अर रक्त कमल पर कुमुदको भी जीते ऐसी श्यामता आरक्तता शुक्लता को घरे मानों दशों दिशामें तीन रंगके कमलों के समूह ही विस्तार राखे हैं और अष्टमीके चंद्रमा समान मनोहर है ललाट जिसका थर लंबे बांके काले सुगंध सघन सचिकण हैं केश जिसके, कमल समान हैं हाथ पर पांव जिसके अर हंसिनीको अर हस्तिनीको जीते ऐसी है चाल जिसकी र सिंहनी से भी प्रति क्षीण है कटि जिसकी मानों साक्ष त् लक्ष्मी ही कमल के निवासको तजकर रावणके निकट ईर्षाको धरती हुई आई है क्योंकि मेरे होते हुए रावण के शरीरको विद्या क्यों स्प ऐसे अद्भुत रूपको धरबहारी मंदोदरी रावण के मन और नेत्रोंको हरती भई । सकल रूपवती स्त्रियों का रूप लावण्य एकत्र कर इनका शरीर शुभ कर्मके उदय से बना है, अंगमें अद्भुत आभूषण पहरे, महा मनं ज्ञ मंदोदरीको अवलोकन र रावणका हृदय काम बाणसे बींधा गया, महा मधुरताकर युक्त जी रवणकी दृष्टि उसपर गयी थी वह हटकर पीछे आई परंतु मधुकर मक्षिकाकी नई घूमने लग गई। रावण वित्तमें सांचै कि यह उत्तम नारी कौन है ? श्री ही धृति कीर्ति बुद्धि लक्ष्मी सरस्वती इनमें यह कौन है ? परणी है वा कुमारी है ? ममस्त श्रेष्ठ स्त्रियोंकी यह शिरोभाग्य है, यह मन इंद्रियों को हरणहारी जो मैं पर तो मेरा नवयौवन सुफल है, नहीं तो तृणवत् वृथा है ऐ चितवन रावणने किया तब राजा मन मंदोदरीके पिता बड़े प्रवीण इसका अभिप्राय जन मंदोदरीको निकट बुलाय रावणसे कही - "याके तुम पति हो" यह वचन सुन रावण ति प्रसन्न भया मानों अमृतले गत सींचा गया, हर्ष के अंकुर समान रोमांच होय आए | सर्व वस्तुकी इनके सामग्री हुनी ही, ताही दिन मंदोदरीका विवाह भया; रावण मंदोदरीको परणकर अति प्रसन्न होय स्वयंप्रभ नगर में गए । राजा मय भी पुत्रीको परणाय निश्चिन्त भए । पुत्रीके विछोह से शोक सहित आने देशको गए । रावणने हजारों राणी परणीं उन सबकी शिरोमणी मंदोदरी होती भई । मंदोदरी भरतारके गुणोंसे हरा गया है मन जिसका, पतिकी आज्ञाकारिणी होती भई रावण उस सहित जैसे इंद्र इंद्राणी सहित रमे तैसे सुमेरुके न दन वनादि रमीक स्थानमें रभते भए, कैसी है मंदोदरी ? सर्व चेष्टा मनोज्ञ हैं जाकी | अनेक विद्या जो रावणने सिद्ध करी हैं उनकी अनेक चटा दिखाते भए, एक रावण अनेक रूप थर अनेक स्त्रि के महलोंमें कौतूहल करे, कभी सूर्यकी नाई तपे, कभी चंद्रमाकी नाई चादनी विस्तारे, कभी अग्निकी नाई ज्वाला वरपे, कभी मेघकी नाई जल धारा श्रवै, कभी पवन की नई पहाड़ों को चल वें, कभी इंद्रकी सी लीला करे, कभी वह समुद्रकी सी तरंग घरे, कभी वह पर्वत समान अचल दशा गर्दै, कभी माते हाथी समान चेष्टा करें, कभी पवन से अधिक वेगवाला अश्व बन जाय, क्षणमें नजीक चसमें अदृश्य चयन सूक्ष्म क्षण में स्थूल क्षण में भयानक क्षण में मनोहर इस भांति रमता
भया ।
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