Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 595
________________ प्रभातका समय क्यों चूको हो, जो भगवान वीतरागदेव मोहरूप रात्रिकों हर लोकालोकका प्रकट करणहारा केवलज्ञानरूप प्रताप करते भए, वे त्रैलोक्यके सूर्य भव्यजीवरूप कमलों को प्रकट करणहारे तिनका शरण क्यों न लेवों पर यद्यपि प्रभान समय भया परंतु मुझ अंधकार ही भासे है क्योंकि मैं तिहारा मुख प्रसन्न नाहीं देखू, तात हे विचक्षण ! अब निद्रा तजो, जिनपूजाकर सभामें तिष्ठो सब सामंत तिहारे दर्शनको खडे हैं, बडा आश्चर्य है सरोवरमें कमल फूले तिहारा वदनकमल मैं फूला नहीं देखू हूं, ऐमी विपरीत चेष्टा तुमने अब तक कभी भी नहीं करी, उठो राज्यकार्यमें चित्त लगावो हे भ्रात ! तिहारी दीर्घ निद्रासे जिनमंदिरोंकी सेवामें कमी पडै है, संपूर्ण नगरमें मंगल शब्द मिट गए गीत नृत्य वादित्रादि बंद हो गये हैं औरोंकी कहा बात ? जे महाविरक्त मुनिराज हैं तिनको भी तिहारी यह दशा सुन उद्वग उपजै है तुम जिनधर्मके धारी हो सव ही साधर्मीक जन तिहारी शुभदशा चाहे हैं वीण बांसुरी मृदंगा दिककै शब्दरहित यह नगरी तिहारे वियोगकर व्याकुल भई नहीं सोहै है कोई अगिले भवमें महाअशुभ कर्म उपार्जे तिनके उदयकर तुम सारिखे भाई की अप्रसन्नतासे महाकष्ट को प्राप्त भया हूँ। हे मनुष्योंके सूर्य जैसे युद्ध में शक्तिके घावकर अचेत होय गए थेअर अानंदसे उठे मेरा दुख दूर किया तैसे ही उठकर मेरा खेद निवारो॥ इति श्रीरविषेणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै रामदेवका विलाप वर्णन करनेवाला एकसौ सोलहवां पर्व पर्ण भया ॥ १६॥ अथानन्तर यह वृत्तांत सुन विभीषण अपने पुत्रनि महित अर विराधित मकल परिवार सहित अर सुग्रीव आदि विद्याधरनिके अधिपति अपनी स्त्रीयों सहित शीघ्र अयोध्यापुरी पाए सुनकर भरे हैं नेत्र जिनके हाथ जोड सीस निवाय रामके ममीप आए महा शोकरूप हैं चित्त जिनके प्रति विषादके भरे रामको प्रणामकर भूमिमें बैठे, क्षण एक तिष्ठकर मंद२ वाणीकर विनती करते भए-हे देव ! यद्यपि यह भाईका शोक दुनिवार है तथापि श्राप जिनवाणीके ज्ञाता हो सकल संसारका स्वप जानो हो तातें आप शोक तजिवे योग्य हो, ऐसा कह सबही चुप होय रहे बहुरि विभीषण सब बातमें महा विचक्षण सो कहता भग-हे महाराज ! यह अनादि कालकी रीति है कि जो जन्ना सो मूवा, सब संसारमें यही रीति है इनहीको नाहीं भई जन्म का साथी मरण है मृत्यु अवश्य है काहूंसे न टी पर न काहूसे टरे या संसार पिंजरेमें पडे यह जीवरूप पक्षी सबही दुखी हैं कालके वश हैं मृत्यु का उपाय नाहीं पर सबके उपाय हैं यह देह निसंदेह विनाशीक हैं तातै शोक काना क्या है, जे प्रीण पुरुष हैं वे प्रात्मकल्याणका उपाय करें हैं रुदन किएसे मरा न जीवे अर न वचनालाप करे, तात हे नाथ ! शोक न करो यह मनुष्यनिके शरीर तो स्त्रो पुकानिके संगरोगने उपजे हैं सो पानीके वुदबुदावत बिलाय जांय इसका पाश्चर्य कहा अहमिंद्र इन्द्र लोहमाल आदि देव आयुके क्षय भए स्वर्गसे चय हैं जिनकी सामगेकी आयु अर किसीके मारे न मरें वे भी काल पाय मरें मनुष्यनिकी कहा बात यह तो गर्भके खेदकर पीडित अर रोगनिकर पूर्ण डामकी अणीके ऊार जो ओस की बूंद आय पडे उस समान पडनेको सन्मुख है महा मलिन हाडों के पिंजरे ऐसे शरीर के रहिवेको की कहा आशा यह प्रागी अपने सुजनोंका सोच करें मो अप क्या अजर अमर हैं आपही कालकी दाद Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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