Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 607
________________ पग-पुराण देव ! मैं विना विचारें तिहारी आज्ञा विना दीक्षा लीनी मोहि विद्यापरिनिने बहकाया अब मेरा मन तुममें है, या दीक्षा कर पूर्णता होवै। यह दीक्षा अत्यन्त वृद्धनिको योग्य है कहां यह यौवन अवस्था अर कहां यह दुर्द्धर व्रत ? महा कोमल फूल दावानलकी ज्वाला कैसे सहार सके ? अर हजारां विद्याधरनिकी कन्या और हू तुमको वरा चाहे हैं मोहि आगे धार ल्याई हैं कहे हैं, तिहारे आश्रय हम बलदेवको वरें, यह कहे हैं अर हजारां दिव्य कन्या नाना प्रकारके आभूषण पहरे राजहंसनी समान है चाल जिनकी सो प्रतीन्द्रकी विक्रीया कर मुनीन्द्रके समीप आई कोय. लतें हूँ अधिक मधुर बोलें ऐसी सोहैं मानों साक्षात् लक्ष्मी ही है मनको आल्हाद उपजावें कानोंको अमृत समान ऐसे दिव्य गीत गावती भई अर वीण बांसुरी मृदंग बजावती भई भ्रमर सारिखे श्याम केश विजुरी समान चमत्कार महासुकुमार पातरी कटि कठोर अति उन्नत हैं कुच जिनके सुन्दर श्रृंगार करे नानावर्णके वस्त्र पहिरे, हाव भाव विलास विभूमको धरती मुलकती अपनी कांतिकर व्याप्त किया है आकाश जिन्होंने मुनिके चौगिर्द बैठी प्रार्थना करती भई-हे देव ! हमारी रक्षा करो अर कोई एक पूछती भई-हे देव ! यह कौन बनस्पति है अर कोई एक माधवी लताके पुष्प के ग्रहण के मिस बाहू ऊची करती अपना अंग दिखावती भई, अर कई एक भेली होयकर ताली देती रासमण्डल रचती भई, पल्लवसमान हैं वर जिनके अर कोई परस्पर जलकलि करती भई या प्रकार नाना भांतिकी क्रीडाकर मुनिके मन डिगायवेका उद्यम करती भई, सो हे श्रेणिक ! जैसे पवनकर सुमेरु न डिगै तैसे श्रीरामचन्द मुनिका मन न डिगा आत्मस्वरूपके अनुभवी रामदेव सरल हैं दृष्टि जिनकी, विशुद्ध है आत्मा जिनका, परीषहरूप वज्रपातसे न हिगे, क्षपक श्रेणी चढे शुक्लध्यानके प्रथम पाएमें प्रवेश किया, रामचन्द्रका भाव यात्मामें लग अत्यन्त निर्मल भया सो उनका जोर न पहुँचा मूढजन अनेक उपाय करें परन्तु ज्ञानी पुरुषनिका चित्त न चले, वे आत्मस्वरूपमें ऐसे दृढ भए जो काहू प्रकार न चिगे, प्रतीन्द्रदेवने मायाकर रामका ध्यान डिगाव को अनेक यत्न किए परन्तु काही उपाय न चला, पुरुषोत्तम अनादिकाज के कर्मोकी वर्गगाके दम्भ करिवेंको उद्यमी भए पहिले पाएक प्रसादसे मोहका नाश कर बारहवें गुणस्थानक चढे तहां शुक्लध्यानके दूजे पाएके प्रशादतें ज्ञानावरण दशनावरण अन्तरायका अन्त किया माघ शुक्लदाद्वी की पिछिली रात्री केवलज्ञानको प्राप्त भए केवलज्ञानम सर्व द्रव्य समस्त पर्याय प्रतिभासे ज्ञानरूप दर्पण में लोकालोक सव भासे तब इन्द्रादिक देवनिके आसन कम्पायमान भए अवधिज्ञानकर भगवान् रामको केवल ज्ञान उपजा जानकर केवल कल्याणकी पूजाको पाए महा विभूति संयुक्त देवनिक समूह सहित बडे श्रद्धावान सब ही इन्द्र आए घातिया कर्मके नाशक अहंत परमेष्ठी तिनको चारण मुनि अर चतुरनिकायके देव सब ही प्रणाम करते भए । वे भगवान छत्र चमर सिंहासन आदिकर शोभित त्रैलोक्यकर वन्दिवे योग्य सयोगकेवली तिनकी गंधकुटो देव रचते भए दिव्यध्वनि खिरती भई सब ही श्रवण करते भये अर बारम्बार स्तुति करते भये सीताका जीव स्वरप्रभ नामा प्रतींद्र केलीकी पूजावर तीन प्रदक्षिणा देय बारम्बार क्षमा करा, वता भया, हे भगवान् ! मैं दुबुद्धिने जो दोष किये सो क्षमा करो, गौतम स्वामी कहे हैं-हे श्रेणिक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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