Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 606
________________ एकसौवाईसवा पक विरक्त कर्म कलंक हरिवेको है यत्न जिनके, निर्मल शिलापर तिष्ठते, पद्मासन थरे आत्मध्यानमें प्रवेश करते भए जैसे रवि मेघमालामें प्रवेश करे वे प्रभ सुमेरु सारिखे अचल है चित्त जिनका पवित्र स्थानमें कायोत्सर्ग धरे निज स्वरूपका ध्यान करते भए कबहुंक विहार करें सो ईा समिति पालते जूडा प्रमाण पृथिवी निरखते महा शान्त जीव दया प्रतिपाल देव देवांगनादिक कर पूजित भए वे आत्मज्ञानी जिन आज्ञाके पालक जैनके योगी ऐसा तप करते भये जो पंचम कालमें काहूके चितवनमें न आवै एक दिन विहार करते कोटिशिला आये जो लक्ष्मणने नमोकार मंत्र जप कर उठाई हुती सो आप कोटि शिला पर ध्यान धर तिष्ठे कर्मोंके खिपायवे में उद्यमी क्षपकणि चढवे का है मन जिनका ॥ अथाननर अच्युतस्वर्गका प्रतीन्द्र सीताका जीव स्वयंप्रम नामा अवधिकर विचारता भया, राम का अर आपका परम स्नेह अपने अनेक भव अर जिनशासनका माहात्म्य अर गमका मुनि होना अर कोटिशिला पर ध्यान धर तिष्ठना बहरि मन में विचारी वे मनुष्यनिके इन्द्र पृथिवीके आभूषण मनुष्य लोकमें मेरे पति हुने मैं उनकी स्त्री सीता हुती देखो कर्मकी विचित्रता, मैं तो व्रतके प्रभावतें स्वर्ग लोक पाया अर लक्ष्मण रामका भाई प्राण हू तें प्रियसो परलोक गया, राम अकेले रह गए, जगत्के आश्चर्यके करणहारे दोनों भाई बलभद्र नारायण कर्मके उदयतें बिछुरे श्रीराम कमल मारिखेनेत्र जिनके शोभायमान हल मूमलके धारक वलदेव महाबली सो वासुदेवके वियोगकर जिनदेवकी दीक्षा अंगीकार करते भये राजअवस्थामें तो शस्त्रों कर सर्व शत्रु जीते बहुरि मुनि होय मनइन्द्रिय जीते अब शुक्लभ्यान धारकर कर्मशत्रुको जीता चाहै हैं ऐसा होय जो मेरी देव मायाकर कछुइक इनका मन मोहमें श्रावै वह शुद्धोपयागसे च्युत होय शुभोपयोगमें आय यहां अच्युतस्वगमें आवें, मेरे इनके महा प्रीति है, मैं अर वे मेरु नन्दीश्वरादिककी यात्रा करें अर बाईस सागरपर्यंत भेले रहें। मित्रता वढावें अर दोनों मिल लक्ष्मणको देखें यह विचार कर सीताका जीव प्रतींद्र जहां राम ध्यानरूढ थे तहां आया इनको ध्यानसे च्युत करवे अर्थ देवमाया रची, वसन्तऋतु वनमें प्रकट करी, नाना प्रकारके फूल फूले अर सुगन्ध वायु बाजने लगी पक्षी मनोहर शब्द करने लगे अर भ्रमर गुजार कर हैं कोयल बोलें है, मैना, सूवा, नानाप्रकार की ध्वनि कर रहे हैं पांव मौर आये भ्रमरोंकर मण्डित सोहै है, कामके बाण जे पुष्प तिनकी सुगन्यता फैल रही हैं घर कर्णकार जातिके वृक्ष फूले हैं तिनकर वन पीन हो रहा हैं सो मानों बसन्तरूप राजा पीतम्बर कर क्रीडाकर रहा है मौलश्री की वर्षा होय रही है ऐसी बसन्तकी लीला कर आप वह प्रतीन्द्र जानकीका रूप धर रामके समीप आया, वह मनोहर वन जहां और कोई जन नहीं अर नाना प्रकारके वृक्ष सब ऋतुके फूल रहैं हैं, ता समय रामके समीप सीता सुन्दरी कहती भई-हे नाथ ! पृथिवीमें भ्रमण करते कोई पुण्यके योगते तुमको देखे वियोगरूप लहर का भरा जो स्नेहरूप समुद्र तामें मैं डुबू हूँ सो मोहि थांभो अनेक प्रकार रागके वचन कहे परन्तु मुनि अकम्प सो वह सीताका जीव मोहके उदयकर कभी दाहिने कभी बांये भ्रमें कामरूप ज्वरके योगकर कम्पित है शरीर पर महा सुन्दर अरुण हैं अघर जाके या मांति कहती भई-हे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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