Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 609
________________ ६०० पद्म-पुराण मधाम पधारेंगे अर तू विषयवासना कर विषम भूमिमें पडा अब भी चेत, ज्यू कृतार्थ होंय, तंब रावणका जीव प्रतिबोधको प्राप्त भया अपने स्वरूपका ज्ञान उपजा अशुभ कर्म बुरे जान मनमें विचारता भया मैं मनुष्य भव पाय अणुव्रत महाव्रत न आराधे तिससे इस अवस्थाको प्राप्त भया हाय हाय मैं कहा किया जो आपको दुख समुद्रमें डारा । यह मोहका माहात्म्य हैं जो जीव आत्महित न कर सकें रावण प्रतीन्द्रको वहे है- हे देव तुम धन्य हो विषयकी वासना तजी जिनवचनरूप अमृतको पीकर देवोंके नाथ भये । तभ प्रतीन्द्रन दयालु होयकर कही तुम भय मत करो चलो हमारे स्थानको चला ऐसा कह याके उठायवेकों उमद्यी भया तव रावण के जीवके शरीर के परमाणु बिखर गये जैसे अग्नि कर माखन पिगल जाय काहू उपाय कर याहि लेजायवे समर्थ न भया जैसे दर्पण में तिष्ठती छाया न ग्रही जाय, तब रावणका जीव कहता भया - हे प्रभो ! तुम दयालु हो सो तुमको दया उपजे ही परन्तु इन जीवनिने पूर्वे जे कर्म उपार्जे हैं तिनका फल अवश्य भोगे हैं विषयरूप मांसका लोभी दुर्गतिकी आयु बांधे हैं सो आयु पर्यंत दुःख भोगवे है यह जीव कर्मोंके आधीन इसका देव क्या करें हमने अज्ञान के योग से अशुभ कर्म उपार्जे हैं इनका फल अवश्य भोगेगे आप छुडायवे समर्थनहीं तिससे कृपाकर वह उपदेश कहो जिसकर फिर दुर्गतिक दुख न पावें, हे दयानिधि तुम परम उपकारी हो तब देवने कही परमकल्याणका मूल सम्यक्ज्ञान है मो जिनशासनका रहस्य है अविवेकियोंको अगम्य हैं तीन लोक में प्रसिद्ध है आत्मा अमूतिक सिद्ध समान उसे समस्त परद्रव्योंसे जुदा जाने जिनधर्मका निश्चय करें यह सम्यग्दर्शन कर्मों का नाशक शुद्ध पवित्र परमार्थका मूल जीवोंने न पाया तातैं अनन्त भव ग्रहें यह सम्यग्दर्शन श्रव्योंको अप्राप्य है अर कल्याण रूप हैं जगतमें दुर्लभ हैं सबलमें श्रेष्ठ है मो जो तू आत्मकल्याण चाहे है तो उसे अंगीकार कर जिसकर मोक्ष पात्रै उसमे श्रेष्ठ और नहीं न हुआ न होयगा इसो कर सिद्ध भये हैं कर होयगे जे अरहन्त भगवानने जीबादिक नव पदार्थ भाखे हैं तिनकी श्रद्धा करनी उसे सम्यग्दर्शन कहिए इत्यादि वचनों कर रावण के जीवों की सुरेन्द्रने सम्यक्त्व ग्रहण कराया अर याकी दशा देख विचारता भया जो देखो रावण केभवमें याकी कहा कांति थी महासुन्दर लावण्यरूप शरीर था सो अब ऐसा होय गया जैसा नवीन वन अग्नि कर दग्ध हो जाय जिसे देख सकल लोक आश्चर्यको प्राप्त होते सो ज्योति कहां गई? बहुरि ताहिं कहता मया कर्मभूमिमें तुम मनुष्य भऐ थे सो इंद्रयोंके क्षुद्र सुखके कारण दुराचार कर ऐसे दुख रूप समुद्रमें डूबे । इत्यादि प्रतींद्रने उपदेशकं वचन कहे तिनका सुनकर उसके सम्यग्दर्शन दृढ भया र मनमें विचारता मया कर्मोके उदयकर दुर्गतिके दुख प्राप्त भए तिनको भोग यहांसे छूट मनुष्य देह पाय जिनराजका शरण गहूंगा। प्रतींद्रसे कही - अहो देव तुम मेरा बडा हित किया जो सम्यक दर्शन में मोहि लगाया, हे प्रतींद्र महाभाग्य अब तुम जावो, वहां अच्युतस्वर्ग में धर्म के फलसे सुख भोग मनुष्य होय शिवपुरकू प्राप्त होवो, जब ऐसा कहा तब प्रतींद्र उसे समाधान रूप कर कर्मोंके उदयको सोचते संते सम्यकदृष्टि बहांसे ऊपर आम्रा संसार की मायासे शंकित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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