Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 601
________________ ५६२ पद्म-पुराध इतना हित जनाया तब जटायु का जीव कहता भया - -हें प्रभो ! मैं वह गृद्ध पक्षी हू आप मुनिनिक्कू' आहार दिया वहां मैं प्रतिबुद्धि भया पर आप मोहि निकट राखा, पुत्रकी न्याई पाला र लक्ष्मण सीता मोसू अधिक कृपा करते सीता हरी गई ता दिन मैं रावण से युद्धकर कंठगत प्राण भया, आपने आय मोहि पंच नमोकार मन्त्र दिया मैं तुम्हारे प्रसाद कर चौथे स्वर्ग देव भया स्वर्गके सुखकर मोहित भया अबतक आपके निकट न आया अब अवधिज्ञान कर तुमको लक्ष्मण के शोक कर व्याकुल जान तुम्हारे निकट आया हूँ श्रर कृततिवक्रके जीवने कही - हे नाथ ! मैं कृतांतवक्र आपका सेनापति हुता आप मोहि भ्रात पुत्रनिते हू अधिक जाना पर वैराग्य होते मोहि आप आज्ञा करी हती जो देव होंषो तो हमको कबहू चिंता उपजै तब चितारियो सो श्रापके लक्ष्मणके मरणकी चिंता जान हम तुमपै आये तब राम दोनों देवनि कहते भये तुम मेरे परममित्र हो महाप्रभाव धारक चौथे स्वर्गकं महाऋद्धि धारी देव मेरे सबोंधिवेकों आये तुमको यही योग्य ऐसा कहकर रामने लक्ष्मणके शोकसे रहित होय लक्ष्मण के शरीर को सरयू नदी ढा दग्ध कीया श्रीराम आत्मस्वभाव के ज्ञाता धर्मकी मर्यादा पालनेके अर्थ शत्रुघ्न भाईको कहते भए हे शत्रुघ्न ! मैं मुनिके व्रतधार मिद्ध पदको प्राप्त हुआ चाहू तू पृथिवीका राज्य कर तब शत्रुघ्न कहते भये - हे देव मैं भोगनिका लोभी नहीं जाके राग होय सो राज्य करे मैं तिहारे संग जिनराजके व्रत धरूंगा अन्य अभिलाषा नहीं हैं मनुष्यनिके शत्रु ये काम भोगे मित्र बांधव जीतव्य इनसे कौन तृप्त भया ! कोई ही तृप्त न भयां तातें इन सबनिका त्याग ही जीवको कल्याणकारी है ॥ इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण संस्कृत ग्रन्थ, ताकी भाषा वचनिका विषै लक्षमणकी दग्धक्रिया अर मित्रदेवनिका आगमन वर्णन करनेवाला एक्सौअठारहवां पर्व पर्ण भया ।। ११८ ॥ अथानन्तर श्रीरामचन्द्र ने शत्रुघ्नके वैराग्यरूप वचन सुन ताहि निश्चयसे राज्यसे पराङमुख जान क्षण एक विचार अनंगलवण के पुत्रको राज्य दिया सो पिता तुल्य गुणनिक्की खान कुलकी धुराका धरणहारा नमस्कार करे हैं समस्त सामंत जाको, सो राज्य में तिष्ठा प्रजाका अति अनुराग है जासे महा प्रतापी पृथिवीमें आज्ञा प्रवर्तावता भया अर विभीषण लंकाका राज्य अपने पुत्र सुभूषण को देय वैराग्यको उद्यमी भया अर सुग्रीव हूं अपना राज्य अंगदको देय कर संसार शरीर भोगसे उदास भया ये सब रामके मित्र रामकी लार भवसागर तरवेका उद्यमी भए राजा दशरथका पुत्र राम भरत चक्रवर्तीकी न्याई राज्यका भार तजता भया । कैसा है राम विष सहित अन्नममान जाने विषय सुख जाने, अर कुलटा स्त्रीसमान जानी हैं समस्त विभूति जाने एक कल्याणका कारण मुनिनिके सेववे योग्य सुर असुरोंकर पूज्य श्री मुनिसुव्रतनाथका भाषा मार्ग ताहि उरमें धारता भया जन्ममरणके भयसे कम्पायमान भया है हृदय जाका ढोले किये हैं कर्मबंध जाने धो डाले हैं रागादिक कल के जाने महावैराग्यरूप हैं चित्त जाका क्लेशभाव से निवृत जैमा मेघपटलसे रहित भानु भासै तैमा भासता भया मुनिव्रतधारिका है अभिप्राय जाके ता समय अरहदाश सेठ आया तब ताहि श्रीराम चतुर्विध संधकी कुशल पूछते भए तब वह कहता भया हे देव, तिहारे कष्टकर मुनिनिका हू मन अनिष्ट संयोगको प्राप्त भया ये बात करें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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