Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 593
________________ ५५४ षभ पुराग भासे अत्यन्त विव्हल रामको देख सब राजलोकरूप समुद्रसे रुदनं रूप ध्वनि प्रगट होगी भई दुखरूप सागरमें मग्न सकल स्त्री जन अत्यर्थपणे, रुदन करती 'भई तिनके शब्द कर दशो दिशा पूर्ण भई कैसे विलाप करें है हाय नाथ पृथिवीको आनन्दके कारण सर्व सुन्दर हमको वचन रूप दान देवो तुमने बिना अर्थ क्यों मौन पकडी हमारा अपराध क्या विना अपराध हमको क्यों तजी हो तुम तो ऐसे दयालु हो जो अनेक चूक पडे तो क्षमा करो। अथानन्तर इस प्रस्ताव में लवण अंकुश परमविषादको प्राप्त होय विचारते भए कि धिक्कार इस संसार असारको अर इस शरीर समान और क्षणभंगुर कौन जो एक निमिष मात्रमें मरणको प्राप्त होय । जो वासुदेव विद्याधरोंकर न जीता जाय सो भी कालके जाल में आय पडा इसलिये यह विनश्वर शरीर यह विनश्वर राज्य संपदा उसकर हमारे क्या सिद्धि ? यह विचार सीताके पुत्र फिर गर्भ में प्रायवेका है भय जिनको, पिताके चरणारबिन्दको नमस्कार कर महेन्द्रोदय नामा उद्यान में जाय अमृतेश्वर मुनिकी शरण लेय दोनों भाई महाभाग्य मुनि भए जब इन दोनों भाई योंने दीक्षा धरी तब लोक अतिव्याकुल भए कि हमारा रक्षक कौन ? रामको भाई के मरणका बडा दुख सो शोकरूप भंवरमें पडे, जिनको पुत्र निकसनेकी कुछ सुध नहीं रामको राज्यसे पुत्रोसे प्रियायोंसे अपने प्राणसे लक्ष्मण अतिप्यारा यह कर्मोकी विचित्रता जिसकर ऐसे जीवोंकी ऐसी भशुभ अवस्था होय ऐसा संसार का चरित्र देख ज्ञानी जीव वैराग्यको प्राप्त होय हैं जे उत्तम जन हैं तिनके कछु इक निमित्त मात्र वाह्य कारण देख अंतरंग के विकारभाव दर होय ज्ञान रूप सूर्यका उदय होय है पूर्वोपार्जित कर्मोका क्षयोपशम होय तब वैराग्य उपजे है । - इति श्रीरविषणाचार्यविरचित महापद्मपुराण सस्कृत ग्रंथ, ताकी भाषा वचनिकाविषै लक्ष्मणका मरण अर लवणांकशका वैराग्य वार्णन करनेवाला एकसौ पन्द्रहवां पर्वा पुर्ण भया॥१५॥ __ अथानन्तर गौतमस्वामी राजा श्रेणि कसे कहे हैं-हे भव्योत्तम ! लक्ष्मणके काल प्राप्त भए समस्त लोक व्याकुल भए अर युगप्रधान जे राम सो अति व्याकुल रोय सब बातोंसे रहित भए कछु सुध नहीं लक्ष्मणका शरीर स्वभाव ही कर महासुरूप कोमल सुगन्ध मृतक भया तो जैसेका तैसा सो श्री राम लक्ष्मणको एक चण न तजे कवहूं उरसे लगाय लेय कभी पपोले कभी चूबे कबहू इसे लेकर आप बैठ जावें कभी लेकर उठ चले एकक्षण काहूका विश्वास नकर एक क्षण न तजे जैसे बालकके हाथ अमृत पावै अर वह गादार गहैं तैसे राम महा प्रियजो लक्ष्मण उसको गाढा २ गहैं । अर दीनोंकी नाई विलाप करें हाय भाई ! यह तोहि कहा योग्य जो मुझ तजकर तैने अकेले भाजिकी बुद्धि करी । मैं तेरा विरह एक क्षण सहारवे समर्थ नाहीं यह बात कहा न जाने है तू तो सब बातोंमें प्रवीण है अब मोहि दुखके सागरमें डारकर ऐसी चेष्टा करे हैं हाय भ्रात ! यह क्या कर उद्यम किया जो मेरे बिना जाने मेरे बिना पूछे कूचका नगारा बजाय दिया । हे वत्स ! हे बालक ! एक बार मुझे वचनरूप अमृत प्याय, तूतो अति विनयवान् हुता विना अपराध मोसे क्यों कोप किया, हे मनोहर ! अब तक कभी मोसे ऐसा मान न किया अब कछु और ही होय गया । कह मैं क्या किया, जो तू रूसा, तू सदा ऐसा विनय करना मुझे दूरसे देख उठ खडा होय सन्मुख आवता मोहि सिंहासन ऊपर बैठावता आप भूमिमें बैठाता अब कहा दशा भई, मैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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