Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

View full book text
Previous | Next

Page 561
________________ पद्म-पुराण महामनोग्य भोगे बहुरि वहांसेचयकर सुमेरु पर्वतके पूर्व दिशाकी ओर विदेह वहां क्षेमपुरी नगरी राजा विजुलबाहन, राणी पद्मावती, तिनके श्रीचन्द नामा पुत्र भया वहां स्वर्ग समान सुख भोगे तिनके पुण्यके प्रभावसे दिन दिन राजकी वृद्धि भई, अटूट भंडार भया समुद्रांत पृथिवी एक ग्रामकी न्याई वश करी अर जिसके स्त्री इंद्राणी समान सो इंद्र कैसे सुख भोगे, हजारों वर्ष सुखसे राज्य किया। एक दिन महासंघ सहित तीन गुप्तिके धारक समाथिगुप्ति योगीश्वर नगरके बाहिर श्राय विराजे तिनको उद्यानमें पाया जान नगरके लोग बन्दनाको चले सो महास्तुति करते वादित्र वजावते हर्षसे जाय हैं, श्रीचन्द्र समीपके लोकोंसे पूछता भया-यह हर्षका नाद जैसा समुद्र गाजे तैसा होय है सो कौन कारण है ? तब मंत्रिनिने किंकर दोडाए। निश्चय किया जो मुनि आए हैं तिनके दर्शनको लोक जाय हैं। यह समाचार राजा सुनकर फूले कमल समान भर हैं नेत्र जिसके अर शरीरमें हर्षसे रोमांच होय आये राजा समम्त लोक अर परिवार सहित मुनिके दर्शनको गया प्रसन्न है मुख जिनका ऐसे पुनिराज तिनको राजा देख प्रणामकर महा विनयसंयुक्त पृथिवीमें बैठा । भव्य जीवरूप कमल तिनके प्रफुल्लित करवेंको सूर्य समान ऋषिनाथ तिनके दर्शनसे राजाको अति धर्म स्नेह उपजा, वे महातपोधन धर्म शास्त्रके वेत्ता परम गंभीर लोकोंको तत्वज्ञानका उपदेश देते भए-यतिका धर्म अर श्रावकका धर्म संसार समुद्रका तारणहारा अनेक भेदसंयुक्त कहा अर प्रथमानुयोग करणानुयोग चरणानुयोग द्रव्यानुयोगका स्वरूप कहा । प्रथमानुयोग कहिए उत्तम पुरुषोंका कथन करणानुयोग कहिए तीन लोकका कथन, चरणानुयोग कहिए मुनि श्रावका धर्म अर द्रव्यानुयोग कहिये पद्रव्यसप्त तत्व नव पदार्थ पंचास्तिकायका निणय । कैसे हैं मुनिराज ? वक्तानिमें श्रेष्ठ हैं पर आक्षेपणी कहिए जिनमार्ग उद्योतनी अर चपणी कहिए मिथ्यात्वखंडनी अर संवेगिनी कहिए धर्मानुरागिणी अर निर्वेदिनी कहिए वैराग्यकारिणी यह चार प्रकार कथा वहते भए, इस संसार असा रमें कर्मके योगसे भ्रमता जो यह प्राणी सो महाकष्टसे मोक्ष मार्गको प्राप्त होय है संसारका ठाठ बिनाशीक है जैसा संध्याका वर्ण अर जलका बुदबुदा तथा जलके झाग अर लहर कर विजुरीका चमत्कार इंद्र धनुष क्षणभंगुर हैं प्रसार हैं असा जगतका चरित्र क्षणभंगुर जानना यामें सार नहीं नरक तिर्यचगति तो दुखरूप ही हैं अर देव मनुष्य गतिमें यह प्राणी सुख जाने है सो सुख नहीं, दुख ही है जिससे तृप्ति नाहीं सोही दुख जो महेन्द्र स्वर्गके भोगों से तृप्त नहीं भया सो मनुष्य भवके तुच्छ भोगसे कैसे तृप्त होय ? यह मनुष्य भव भोग योग्य नहीं वैराग्य योग्य है । काहू एक प्रकार से दुलभ मनुष्य देह पाया जैसे दरिद्री निधान पावै सो विषय रसका लोनी होय वृथा खोया मोहको प्राप्त भया जैसे सूके इन्धनसे अग्नि को कहां तृप्ति अर नदीनिके जलसे समुद्र को कहां तृप्ति ? तैसे विषयसुखसे जीवनको तृप्ति न होय, चतुर भी विषयरूप मद कर मोहित भया मन्दताको प्राप्त होय है, अज्ञान रूप तिमिरसे मंद भया है मन जिसका सो जलमें डबता खेदखिन्न होय त्यों खेदखिन्न है परन्तु अविवेकी तो विषय हीको भला जाने हैं, सूर्य ती दिनको ताप उपजावै अर काम रात्रि दिन प्राताप उपजावै सूर्य के प्राताप निवारिवेके अनेक उपाय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616