Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 580
________________ एकसौदस व पर्व ५७९ सर्पके फण समान भयंकर हैं परम दुःखके कारण हम दूर हीसे छोड़ा चाहे हैं या जीवके माता पिता पुत्र बांधव नाहीं कोई याका सहाई नाहीं यह सदा कर्मके आधीन भव वनमें भ्रमण करे हैं। या कौन २ जीव कौन २ सम्बन्धी न भए । हे तात ! हमसू तिहारा अत्यंत बात्सल्य है अर माताओं का है सो येही बन्धन है । हमने तिहारे प्रसादतें बहुत दिन नाना प्रकार संसारके सुख भोगे निदान एक दिन हमारा तिहारा वियोग होयगा, यामें सन्देह नाहीं, या जीवने अनेक भोग किये परन्तु तृप्त न भया । ये भोग रोग समान हैं इनमें अज्ञानी राचें पर यह देह कुमित्र समान है जैसे कुमित्रको नाना प्रकार कर पोषिये परन्तु वह अपना नाहीं तैसे यह देह अपना नाहीं याके अर्थ आत्माका कार्य न करना यह विवेकनिका काम नाहीं, यह देह तो हमको तजेगी हम इससे प्रीति क्यों न तजें । ये वचन पुत्रनिके सुन लक्ष्मण परम स्नेह कर विह्वल होय गये इनको उरसे लगाय मस्तक चूंच बारम्बार इनकी ओर देखते भए घर गद् गद् वाणीं कर कहते भए हे पुत्रो हो ये कैलाश के शिखिर समान हेम रत्नके ऊंचे महल जिनके हजारों कनकके स्तम्भ तिनमें निवास करो नाना प्रकार रत्नोंसे निरमाए हैं आंगन जिनके महा सुन्दर सर्व उपकरणों कर मण्डित मलयगिरि चन्दनकी आवै है सुगन्ध जहां भ्रमर गुंजार करे हैं और स्नानादिककी विधि जहां ऐसी मंजन शाला श्रर सब सम्पतिसे भरे निर्मल हैं भूमि जिनकी इन महलोंमें देवों समान क्रीडा करो र तिहारे सुन्दर स्त्री देवांगना समान दिव्यरूप को धरें शरद के पूनों के चन्द्रमा प्रजा जिनकी अनेक गुणनिकर मण्डित वीण बांसुरी मृदंगादि अनेक बादित्र बजाय में निपुण महा सुकट सुन्दर गीत गायवेमें निपुण नृत्यकी करण हारी जिनेन्द्रकी कथा में अनुरागिणी महापतिव्रता पवित्र तिन सहित वन उपवन तथा गिरि नदियोंके तट निज भवन के उपवन तहां नाना विधि क्रीडा करते देवों की न्याई रमो । हे वत्स हो ! ऐसे सुखोंको तज कर जिन दीचा घर कैसे विपन वन र गिरिके शिखर कैसे रहोगे । मैं स्नेहका भरा र तिहारी माता तिहारे शोक कर तप्ताय मान तिनको तजकर जाना तुमको योग्य नाहीं कैंयक दिन पृथिवीका राज्य करी तब वे कुमार स्नेहकी बासना से रहित गया है चिच जिनका संसारसे भयभीत इन्द्रियोंके सुखसं पराङमुख महा उदार मद्दा शूरवीरकुमार श्रेष्ठ आत्मतत्वमें लगा है चिच जिनका चरा एक बिचार कर कहते भए - हे पिता इस संसार में हमारे माता पिता अनन्त भए यह स्नेहका बंधन नरकका कारण है यह घर रूप पिंजरा पापारम्भका अर दुःखका वढावन हारा है उसमें मूर्ख रवि माने हैं ज्ञानी न माने अब कहूं देह संबधी तथा मन संबंधी दुख हमको न होय निश्चयसे ऐसाही उपाय करेंगे जो आत्मकल्याण न करे सो श्रात्मघाती है कदाचित् घर न तजे र मनमें ऐसा जाने मैं निर्दोष हूं मुझे पाप नहीं तो वह मलिन है पापी है जैसे सुफेद वस्त्र अंग के संयोगसे मलिन होय तैसे घरके योग से गृहस्थी मलिन होय है जे गृहस्थाश्रम में निवास करें हैं तिनके निरन्तर हिंसा आरम्भकर पाप उपाजे तातें सत्पुरुषोंने गृहस्थाश्रम तजे पर तुम हमसों कही कैयक दिन राज्य भोगों सो तुम ज्ञानवान होयकर हमको अंधकूपमें डारो हो जैसे तृपाकर यातुर गमृ जल पीवै अर उसे पारथी मारे तैसे भोगनिकर अतृप्त जो पुरुष उसे मृत्यु मारे है, जगत् के जीव विषयकी अभिलाषा 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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