Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 589
________________ ५८० पद्मपुराण के अल्पसुख तिनमें राम लक्ष्मण न्याय सहित राज्य करते भये । एक दिन महा ज्योतिका धारक सौधर्म इन्द्र. परम ऋद्धिकर युक्त महाधीर्य अर गंभीरता कर मंडित नाना अलंबार धरे सामान्य जाति के देव जे गुरुजन तुल्य अर लोकपाल जातिके देव देशपाल तुल्य र त्रयस्त्रिशत् जातिसे देव मंत्री समान तिनकर मण्डित तथा सकल देव सहित इन्द्रासनमें बैठे कैसे सोहै जैसे सुमेरु पर्वत और पर्वतोंके मध्य सोहैं महातेज पुज अद्भुत रत्नोंका हिासन उसपर सुखसे विराजता ऐसा भासे जैसे सुमेरुके ऊपर जिनराज भासे । चन्द्रमा अर मूर्गकी नोति को जीत ऐसे रत्नोंके आभूषण पहिरे सुन्दर शरीर मनोहर रूप नेत्रों को अानन्दवारी जैसे जल की तरंग निर्मल तैसी प्रभाकर युक्त हार पहिरे ऐसा सोहै मानों सीतोदा नदीके प्रवाइकर युक्त निषधाचल पर्वत ही है मुकट कंठा भरण कुण्डल कुयूर आदि उत्तम आभूषण पहिरे देवों कर मण्डि जैसा नक्ष. त्रोंकर चन्द्रमा सोहै तैसा सोहै है। अपने मनष्य लोकमें चन्द्रमा नक्षत्र ही भासे ताते चन्द्रमा नक्षत्रोंका दृष्टांत दिया है चन्द्रमा नक्षत्र ज्योतिषी देव है तिनसे स्वर्गवासी देवोंकी अति अधिक ज्योति है अर सब देवोंसे इन्द्रकी ही अधिक है अपने तेज कर दशो दिशा में उद्योत करता सिंहासनमें तिष्ठता जेसा जिनेश्वर भासे तैसा भासे इंद्रके इन्द्रासनका अर सभाका जो समस्त मनष्य जिह्वाकर सैकड़ों वर्ष लग वर्णन करे तो भी न कर सकें सभामें इन्द्रके निकट लोकपाल सब दवनिमें मुख्य हैं चित्त जिनके स्वर्गसे चयकर मनध्य होय मुक्ति पाये हैं सोलह स्वर्गके बारह इंद्र है एक एक इन्द्र के चार चार लोकपाल एक भवधारी हैं अर इन्द्रनिमें सौधर्म सनत्कुमार महेंद्र लांतवेन्द्र शतारेद्र पारणेंद्र यह षट् एक भवधारी हैं अर शची इन्द्राणी लोकांतिक देव पंचम स्वर्गके तथा सर्वार्थसिद्ध अहमिंद्र मनुष्य होग मोक्ष जावे हैं सो सौधर्म इन्द्र अपनी सभामें अपने समस्त देवनि कर युक्त बैठा लोकपालादिक अपने अपने स्थान बैठे सो इन्द्र शास्त्रका व्याख्यान करते भये वहां प्रसंग पाय यह कथन किया अहो देवो, तुम अपने भाव रूप पुरुष निरन्तर महा भक्ति कर अर्हत देवको चढायो अर्हतदेव जगतका नाथ है समस्त दोष रूप वनके भस्म करिवेको दावानल समान है जिसमें संसारका कारण मोक्ष रूप महा असुर अत्यंत दुर्जय ज्ञान कर मारा वह असुर जीवोंका बडा वैरी निर्विकल्प सुखका नाशक है अर भगवान बीतराग भव्य जीवोंको संसार समुद्रसे तरिवे समर्थ हैं संसार समुद्र कपायरूप उग्र तरंग कर व्याकुल है कामरूप ग्राह कर चंचलतारूप, मोहरूप मगर कर मृत्युरूप है ऐसे भवसागरसे भगवान बिना कोई तारिवे समर्थ नाहीं । कैसे हैं भगवान जिनके जन्म कल्याण में इंद्रादिकदेव सुमेरु गिरि ऊार क्षीर सागरके जल कर अभिषेक करावे है अर महाभक्ति कर एकाग्रचित्त होय परिवार सहित पूजा करे है धर्म अर्थ करम मोक्ष यह चारो पुरुषार्थ है तिनमें लगा चित्त जिनका जिनेन्द्रदेव पृथिवीरूप स्त्रीको तजकर सिद्ध रूप वनिताको वरते भये । कैसी है पृथ्वी रूप स्त्री ? विंध्याचल अर कैलाश हैं कुच जिसके अर समुद्रकी तरंग हैं कटिमेखला जिसके ये जीव अनाथ महा मोहरूप अंधकार कर आच्छादित तिनको वे प्रभु स्वर्ग लोकसे मनुष्य लोकमें जन्म धर भव सागरसे पार करते भये, अपने अद्भुवानन्तवीर्य कर आठो कर्म रूप वैरी क्षणमात्रमें खिपाए जैसे सिंह मदोन्मत्त हस्तियोंको नसारे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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