Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 560
________________ एकसौछहया पर्व नगरकी अतिशोभा करी बहुत द्रव्य खरचा बडा उत्सव कीया वादित्रोंके शब्द कर दशो दिशा शब्दायमान भई यह बालक पुरापकर्मके प्रभावकर पूर्वजन्म जानता भया सो बलदके भवका शीत आताप आदि महादुख अर मरण समय नमोकार मन्त्र सुना ताके प्रभावकर राजकुमार भया सो पूर्व अवस्था यादकर बालक अवस्था में ही महा विवेकी होता भया । जब तरुण अवस्था भई तब एक दिन विहार करता बलदके मरणके स्थानक गया अपना पूर्व चरित्र चितार यह वृषभधज कुपार हाथीसे उतर पूर्वजन्मकी मरणभूमि देख दुखित भया । अपने मरणका सुध रणहारा नमोकार मन्त्रका देनहारा उसके जानिके अर्थ एक कैलाशके शिखर समान ऊचा चैत्यालय बनवाया अर चैत्यालयके द्वार में एक बडे बैलकी मूर्ति जिसके निकट बैठा एक पुरुष णमोकार मन्त्र सुनावे है ऐसा एक चित्रपट लिखाय मेला अर उसके समीप समझनेको मनुष्य मेले । दशन करवेको मेरुश्रेष्ठीका पद्मरुचि आया सो देख अतिहर्षित भया भर भगवानका दर्शन कर पीछे प्राय बैलके चित्रपटकी ओर निरखकर मनवि विचार है- बलको नमोकार मंत्र मैंने सुनाया था सो खडा खडा देखे जे पुरुष रखवारे थे तिन जाय राजकुमारको कही सो सुनते ही बडी ऋद्धिसे युक्त हाथी चढा शीघ्रती अपने परम मित्रसे मिलने पाया। हाथ से उतर जिनमन्दिरमें गया बहुरि बाहिर आया । पद्मरुचिशे बैल की ओर निहारता देखा राजकुमारने श्रेष्ठ के पुत्रको पूछी तुम बैलके पटकी ओर कहा निरखो तो ? तब पद्मचिने कही-एक मरते बेलको मैंने नमोकार मन्त्र दिया था सो कहां उपजा है यह जानिवेकी इच्छा है तब वृषभध्वज बोले-वह मैं हूं, ऐसा कह पायन पडा अर पद्मरुचिकी स्तुति करी जैसे गुरुकी शिष्य कर अर कहता भया. मैं पशु महा अविवेकी मृत्युके कष्टकर दुखी था सो तुम मेरे महा मित्र णमोकार मंत्रके दाता समाधिमरणके कारण होते भए, तुम दयालु पर भक्के सुधारणहारे, महामन्त्र मुझे दिया उससे मैं राज कुमारभया जैसा उपकार राजा देव माता सहोदर मित्र कुटुम्ब कोई न करे तैसा तुम किया, जो तुम नमोकार मन्त्र दिया उस समान पदार्थ त्रैलोक्यमें नहीं उसका बदला मैं क्या दं तुमसे उऋण नहीं तथापि तुमविषै मेरी भक्ति अधिक उपजी हे जो आज्ञा देवी सो करू । हे पुरुषोत्तम ! तुम आज्ञा प्रदान कर मुझको भक्त करो यह सकल राज्य लेवो मैं तुम्हारा दास यह मेरा शरीर उसकर इच्छा होय सो सेवा करायो । या भांति वृषभध्वजने कही तब पारुचिके अर या अति प्रीति बढी दोनों स. म्यग्दृष्टि राजमें श्रावकके व्रत पालते भए, ठौर ठौर भगवानके बडे २ चैत्यालय कराए तिनमें जिनबिंब पधराए यह पृथिवी तिनकर शोभायमान होती भई बहुरि समाधिमरण कर वृषभध्वज पुण्यकर्मके प्रसाद कर दूजे स्वर्गमें देव भया देवांगनाके नेत्ररूप कमल जिनके प्रफुल्लित करनेको सूर्य समान होता भया तहां मन वांछित क्रीडा करता भया, अर पद्मरुचिसेठ भी समाथिमरण कर दूजे ही स्वर्ग देव भया दोनों वहां परम मित्र भए । वहांसे चयकर पद्मरुचि का जीव पश्चिम विदेह में विजयागिरि जहां नंद्यार्त नगर वहां राजा नन्दीश्वर उसकी राणी कनकप्रभा उसके नयनानन्द नामा पुत्र भया सो विद्याधरनिके चक्रीपदकी संपदा भोगी बहुरि महामुनिकी अवस्था धर विषम तप किया, समाथिमरण कर चौथे स्वर्ग देव भया वहां पुण्यरूप बेलके सुखरूप फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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