Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 564
________________ एकसाछहवा पठा पुरोहितकी कन्या हरिकांता श्रार्थिका के समीप जाय आर्यिका के व्रत लेय परम दुर्धर तप करती भई केशलु च किए महा तप कर रुधिर मांग काय दिए प्रकट दीखे हैं अस्थि पर नसा जिसके, तपकर सुकाय दिया है देह जिसने समाधि मरणकर पांचवें स्वर्ग गई पुण्यके उदयकर स्वर्गके सुख भोंगे अर शंभु संसार में अनीति के योगकर श्रति निन्दनीय भया कुटुंब सेवक पर धनसे रहित भया उन्मत्त होय गया जिनधर्म परागमुख भया साधुओं को देख हमें निंदा करें मय मांस शहकाहारी पाप क्रियामें उद्यमी अशुभके उदयकर नरक तिर्यचमें महा दुख भोगता भया । अथानन्तर कछु यक पापकर्मके उपशमसे कुशध्वज नामा ब्राह्मण ताके सावित्री नामा स्त्रीके प्रभासकुन्द नामा पुत्र भया सो दुर्लभ जिनधर्मका उपदेश पाय विचित्र मुनिके निकट मुनि भया काम क्रोध मद मत्सर हरे, अरंभरहित भया, निर्विकार तपकर दयावान निस्पृही जितेंद्री पक्षमास उपवास करे जहां सूर्य अस्त हो तहां शून्य वनमें बैठ रहे मूलगुण उत्तर गुणका धारक, बाईस परिपका सहनहारा, ग्रीष्ममें गिरिके शिखर रहे, वर्षामें वृक्ष तले बसेर शीतकालमें नदी सरोवरीके तट निवास करे। या भांति उत्तम क्रिया कर युक्त श्रीसम्मेदशिखर की बंदनाको गया वह निर्वाण क्षेत्र कल्याणका मन्दिर जाका चितवन किये पापनिका नाश होय तहां कनकप्रभ नामा विद्याधरकी विभूति आकाशमें देख मूर्खने निदान किया जो जिनधर्म के तप का माहात्म्य सत्य है तो ऐसी विभूति मैं हूं पाऊ । यह कथा भगवान केवलीने विभीषणको कही देखो जीवोंकी मूढता तीन लोक जाका मोल नहीं ऐसा अमोलिक तपरूप रत्न भोग रूपी मूठी सागके अर्थ बेचा, कर्मके प्रभाव कर जीवन की विपर्यय बुद्धि होय है निदानकर दुखित विषम तप कर वह तीजे स्वर्ग देव भया तहांसे चयकर भोगनिमें है चित्त जाका सो राजा रत्नश्रवा राणी केकसी ताके रावण नामा पुत्र भया, लंका में महा विभूति पाई, अनेक हैं श्राश्चर्यकारी वात जाकी, प्रतापी पृथ्वीमें प्रसिद्ध, अर धनदत्तका जीव रात्रि भोजनके त्याग कर सुर नर गतिके सुख भोग श्रीचन्द्र राजा होय पंचम स्वर्ग दश सागर सुख भोग बलदेव भया, रूपकर बलकर विभूति कर जा समान जगतमें और दुर्लभ है महामनोहर चन्द्रमा समान उज्ज्वल यशका धारक अर वसुदत्तका जीव अनुक्रमसे लक्ष्मी रूप लता के लिपटने का वृक्ष वसुदेव भया ताके भव सुन वसुदत्त १ मृग २: शुकर ३ हाथी ४ महिष ५ वृषभ ६ वानर ७ चीता ८ ल्याली ६ मीढा १० अर जलचर स्थलच(के अनेक भव ११ श्रीभूति पुरोहित १२ देवराजा १३ पुनर्वसु विद्याधर १४ तीजे स्वर्गदेव १५ वासुदेव १६ मेघा १७ कुटुम्बीका पुत्र १८ देव १६ बणिक २० भोग भूमि २१ व २२ चक्रवर्तीका पुत्र २३ बहुरि कैपक उत्तम भर घर पुष्कराद्ध के विदेहमें तीर्थकर अर चक्रवर्ती दोय पदका धारी होय मोच पावेगा श्रर दशाननके भव - श्रीकांत १ मृग २ सूकर ३ गज ४ महिप ५ वृषभ ६ बांदर ७ चीता ८ ल्याली ६ मीठा १० अर जलचर थलचर के अनेक भत्र ११ शंभु १२ प्रभासकुन्द १३ तीजे स्वर्ग १४ दशमुख १५ बालुका- १६ कुटुम्बी पुत्र १७ देव १८ बणिक् १६ भोग भूमि २० देव २१ चक्रीपुत्र २२ बहुरि कैपक उत्तम भव धर भरत क्षेत्र में जिनराज होय मोक्ष पावेगा बहुरि जगत जालमें नाहीं अर जानकी के भव- - गुणवती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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