Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 571
________________ पंभ-पुराण ऊपर आया सो आयकर कश्यपका देश घेरा काशीके चौगिर्द सेना पडी तथापि कश्यपके सुनह की इच्छा नहीं, युद्धहीका निश्चय, अर राजा रतिवर्धन रात्रिको काशीके वनमें आया पर एक द्वारपाल तरुण करयप पर भेजा सो जाय कश्यपसे राजाके श्रावने का वृत्तांत कहता भया सो कश्यप अति प्रसन्न भया पर कहांमहाराजरऐसे वचन बारंबार कहता भया तबद्वारपालने कहा महाराज वनमें तिष्ठे हैं तब यह थर्मी स्वामीभक्त अति हर्षित होय परिवार सहित राजापे गया अर उसकी आरती करी अर पांव पकडकर जय जयकार करता नगरमें लाया नगर उछाला पर यह ध्वनि नगरमें बिस्तरी कि जो काहुसे न जीता जाय ऐसा रतिवर्धन राजेंद्र जयवन्त होवो । राजा कश्यपने धनीके श्रावनेका उत्सव किया अर सब सेनाकै सामन्तनिको कहाय भेजा जो स्वामी तो विद्यामान तिष्ठे है पर स्वामीद्रोहीके साथ होय स्वामीसे लडोगे ,कहा यह तुमको उचित है। __ तब वह सकल सामत सर्वगुप्तकों छोड स्वामीपै आए अर युद्ध में सर्वगुप्तको जीवता पकडि काकंदी नगरीका राज्य रतिवर्धनके हाथमें आया राजा जीवता बचा सों बहुरि जन्मोत्सव किया महा दान किए सामतोंके सन्मान किए भगवान्की विशेष पूजा करी कश्यपका बहुत सन्मान किया अति बधाया अर घरको विदा किया सो कश्यप काशी में लोकपालनिकी नाई रमें पर सवगुप्त सर्वलोकनिन्द्य मृतकके तुल्य भया कोई भीटे नाही, मुख देखे नाहीं, तब सर्वगुप्तने अपनी स्त्री विजयावती का दोष सर्वत्र प्रकाशा जो याने राजा बीच अर मोबीच अन्तर डारा यह वृत्तांत सुन विजयावती अति द्वषको प्राप्त भई जो मैं न राजाकी भई न धनीकी भई सो मिथ्या तपकर राक्षसी भई अर राजा रतिवर्धनने भोगनित उदास होय सुभानुस्वामीके निकट मुनिव्रत धरे सो राक्षमीने रतिवर्धन मुनिको अति उपर्सग किए । मुनि शुद्धोपयोगके प्रसादसे केवली भए अर प्रियंकर हितंकर दोनों कुमार पहले याही नगरमें दानदेव नामा विपके श्यामली स्त्रीके सुदेव वसुदेव नामा पुत्र हुते । सो वसुदेवकी स्त्री विश्वा अर सुदेवकी स्त्री प्रियंगु इनका गृहस्थ पद प्रशंसा योग्य हुता इनने श्रीतिलक नामा मुनिको आहारदान दिया सो दानके प्रभावकर दोनों भाई स्त्रीसहित उत्तर • कुरु भोगभूमिमें उपजे तीनपल्यकी आयु भई, साधु का जो दान सोई भया वृक्ष उसके महा फल भोगभूमिमें भोग दूजे स्वर्ग देव भए वहां सुख भोग चये सो सम्परज्ञानरूप लक्ष्मीकर मंडित पाप कर्मके क्षय करणहारे प्रियंकर हितंकर भए, मुनि होय अवयक गये तहांसे चयकर लवणांकुश भये महाभव्य तद्भव मोक्षगामी अर राजा रतिवर्धनकी राणी सुदर्शना प्रियकर हितंकरकी माता पुत्रनिमें जाका अत्यन्त अनुराग था सो भरतार अर पुत्रनिके वियोगसे अत्य-त आर्तरूप होय नानायोनिनिमें भ्रमणकर किसी एक जन्ममें पुण्य उपार्ज यह सिद्धार्थ भवा धर्ममें अनुरागी सर्व विधामें निपुण सो पूर्व भवके स्नेहसे लवणांकुशको पढाए ऐसे निपुण किए जी देवनि कर भी न जीते जांय यह कथा गौतमस्वामीने राजा श्रेणिकसे कही अर आज्ञाकरी हे नृप ! यह संसार असार है पर इस जीवके कौन कौन माता पिता न भए जगतके सबही संबंध झठे हैं एक धर्म ही का सम्बन्ध सत्य है इसलिए विवेकियोंको धर्महीका यत्न करना जिसकर संसारके दुखोंसे छूटे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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