Book Title: Padma Puranabhasha
Author(s): Daulatram Kasliwal
Publisher: Shantisagar Jain Siddhant Prakashini Sanstha

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Page 559
________________ ५५० पद्म-पुराण तीका भाई लोभी धनदत्तको अल्पं धनवंत जान श्रीकांतको महाधनवन्त देख परणाय वेको उद्यमी भया । सो यह वृतांत यज्ञवलि ब्राह्मणने बसुदत्तको कहा -- तेरे बडे भाईकी मांग कन्याका बडा भाई, श्रीकांतको धनवान जान परणाया चाहे है तब बसुदत्त यह समाचार सुन श्रीकांत के मारिवेको उद्यमी भया खड्ग पैनाय अंधेरी रात्रि में श्याम वस्त्र पहिरे शब्द रहित धीरा २ पग धरता जय श्रीकांत घरमें गया सो वह असावधान बैठा हुता सो खड्गसे मारा तत्र पडते पडते श्रीकांतने भी बदत्तको खड्गसे मारा सो दोनो मरे सो विंध्याचलके वनमें हिरण भए र नगर के दुर्जन लोक हुते तिन्होंने गुणवती धनदत्तको न परणायवे दीनी कि इसके भाईने अपराध किया, दुर्जन लोक विना अपराध कोप करे सो यह तो एक बहाना पाया तब धनदत्त अपने भाईका मरण अर अपना अपमान तथा मांगका अलाभ जान महादुखी होय घरसे निकस विदेश गमन करता भया अर वह कन्या धनदत्तकी प्राप्तिकर अतिदुखी भई और भी किसीको न परणावती भई, र कन्या मुनिनिकी निंदा, अर जिनमार्गकी अश्रद्धा मिथ्यात्वके अनुरागकर पाप उपाजें काल पाय वर्तध्यान कर मूई सो जिस वनमें दोनो मृग भए हुते तिस वनमें यह मृगी भई, सां पूर्वले विरोधकर इसीके अर्थ ते दोनों मृग परस्पर लडकर मूए सो वन सूकर भए बहुरि हाथी भैंसा बैल वानर गैंडा न्याली मींढा इत्यादि अनेक जन्म धरते भए अर यह वाही जातिकी तियंचनी होती भई सो याके निमित्त परस्पर लडकर मूए जलके जीव थलके जीव होय २ प्राण तजते भए र धनदत्त मार्गके खेद कर अति दुखी, एक दिन सूर्य के अस्त समय मुनिनिके आश्रम गया भोला कछु जाने नाहीं साधुनिसे कहता भया - मैं तृषाकर पीडित हूं मुझे जल पिलावो तुम धर्मात्मा हो तब मुनि तो न बोले अर कोई जिनधर्मी मधुर वचन कर इसे संतोष उपजाय कर कहता भया - हे मित्र ! रात्रीको अमृत भी न पीत्रना जलकी कहा बात ? जिस समय खनि कर कछू सूझे नाहीं सूक्ष्म जीव दृष्टि न पडें ता समय, हे वत्स यदि तू अति आतुर भी होय तो भी खान पान न करना रात्री आहार में मांसका दोष लागे है इसलिये तू न कर जाकर भवसा गरमें डूबिये । यह उपदेश सुन धनदत्त शान्तचित्त भया शक्ति अल्प थी इसलिये यति न होयसका दयाकर युक्त है चित्त जाका सो अणुव्रती श्रावक भया, बहुरि काल पाय समाधिमरण कर सौधर्म स्वर्गमें बडी ऋद्धिका धारक देव भया मुकुट हार भुजबधादिक कर शोभित पूर्व पुण्यके उदय से देवांगनादिकके सुख भोगे बहुरि स्वर्गसे चय कर महापुर नामा नगर में मेरुनामा श्रेष्ठी ताकी चारिखी श्री पद्मरुचि नामा पुत्र भया अर ताही नगरमें राजा छत्रच्छाय राणी श्रीदत्ता गुणनिकी मंजूषा हुती सो एक दिन सेठ का पुत्र पद्मरुचि अपने गोकुल में अश्व चढा आया सो एक वृद्धगति बलदको कंठगत प्राण देखा तब यह सुगंध वस्त्र माला के धारकने तुरंगसे उतर अतिदया कर बैल के कान में नमोकार मन्त्र दिया सो बलदने चित्त लगाय सुना और प्राण तज राणी श्री चाके गर्भ में आय उपजा राजा छत्रच्छायके पुत्र न था सो पुत्रके जन्म में अतिहर्षित भया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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