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आठवां पर्व लोकोसहित आय विराजे । कैसे हैं रावण ? अखण्ड है गति जिनकी अपनी इच्छासे आश्चर्यकारी आभूषस पहरे है अर श्रेष्ठ विद्याधरी चमर ढोरे हैं मलयागिरीके चन्दनादि अनेक सुगंध अंगपर लगी है, चन्द्रमाकी कांति समान उज्जवल छत्र फिरै हैं मानो शत्रु ओंके भंगसे जो यश विस्तारा है उस यशसे शोभायमान है। धनुष त्रिशूल खड्ग सेल पाश इत्यादि अनेक हथियार जिनके हाथमें ऐसे जो सेवक तिनकर संयुक्त है। सेवक भक्तियुक्त हैं अर अद्भुत कर्मके करणहारे हैं तथा बड़े २ विद्याधर राजा सामन्त शत्रु ओंके नमूहके क्षय करणहारे अपने गुणनिकरि स्वामीके मनके मोहन हारे महा विभवसे शोभित तिनसे दशमुख मण्डित है परम उदार सूर्यकासा तेज धारता पूर्वीपार्जित पुल्यका फल भोगता हुआ दक्षिणके समुद्रकी तरफ जहां लंका है इसीओर इन्द्रकी सी विभूतिसे चला । कुम्भकरण भाई हस्तीपर चढे, विभीषण रथपर चढे, अपने लोगों सहित महा विभूतिसे मण्डित रावग्पके पीछे चले । राजा मय मन्दोदरीके पिता दैत्यजातिके विद्याथरोंके अधिपति माइयों सहित अनेक सामंनोंसे युक्त तथा मारीच अंवर विद्य तवज्र बज्रोदर दुधवज्राक्षफर करनक्र सारन सुनय शुरु इत्यादि मंत्रियोसहित महा विभूतिकर मंडित अनेक विद्याधरों के राजा रावण के संग चले। कैएक सिहोंके रथ चढ़े, कैएक अष्टापदोंके रथपर चढकर वन पर्वत समुद्रकी शोभा देखते पृथ्वी पर विहार किया अर समस्त दक्षिण दिशा वश करी।
_ अथानन्तर एक दिन रावणने अपने दादा सुमालीसे पूछा-'हे प्रभो ! हे पूज्य ! इस पर्वतके मस्तक पर मरोबर नहीं सी कमलोंका बन कैसे कूल रहा है ? यह ार चर्य है पर कमर्लो कारन चंचल होता है यह निश्चल है।' इस भांति सुमालीसे पूछा। कैसा है रावण ? विनयकर नम्रीभूत है शरीर जिसका तब शुमाली 'नमः सिद्धेभ्यः' मंत्र पढ़कर कहते भर--हे पुत्र ! यह कमलोंके धन नहीं, इस पर्वतके शिखरपर पद्मरागमणिमयो हरिपेण चक्रवर्ती के कराए चैत्यालय हैं। जिनपर निर्मल धजा फरहरे हैं। अर नाना प्रकारके तोरणोंसे शोभे है। हरिषेण महा सज्जन पुरुषोचम थे जिनके गुण कहने में न आ हे पुत्र! तू उतरकर पवित्र मा हो कर नमस्कार कर। तब रावखने बहुत विनपसे जिन मदरों को नमस्कार किया अर बहुन आश्चर्य को प्राप्त भया अर सुमालीसे हरिशेण चक्रवर्तीझी कथा पूछी। 'हे देश ! आपने जिनके गुण वर्णन किए ताकी कथा कहो।' यह विनती करी । कैगा है रावण १ वैश्रवणका जीतनहारा बड़ेनिविष है वि विनय जाकी । तब सुमाली कहै है- 'हे दशानन ! ते भली पूछी। पापका नाश करणहारा हरिषेणका चरित्र सो मुना कापल्या नगरमें राजाध्विज उनके राणी वप्रा जो महा गुण ती सौभाग्यवती राजाके अनेक राणी थीं परंतु राणी वा उनमें तिलक थी। उसके हरिपेण चक्रवर्ती पुत्र भये । चौसठ शुभ लक्षणोंसे युक्त, पाप कर्मके नाशनहारे सो इनकी माता वा महा धर्मवती सदा श्रष्टानिकाके उत्सवमें रथयात्रा किया करे इसकी मौकन राणी महालक्ष्मी भौमाग्य के मद से कहती भई कि पहिले हमारा ब्रह्मरथ भ्रमण हुआ करैगा पीछे तुम्हारा । यह बात सुन राणी वप्रा हृदय में खेद भिन्न भई मानों वज्रपातसे पाड़ी गई। उसने प्रतिज्ञा करी कि हमारे वीतरागका रथ अठाइयों में पहिले निकसे तो हमको श्राहार करना अन्यथा नहीं, ऐसा कहकर सर्व काज छोड़ दिया,
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